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जेबकट
[ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन]
उसके सीनेमें भी धड़कना हुआ दिल था । की तारीखें और मुकदमेके नम्बर नोट थे !... लेकिन मजबूरियोंने उस बग बना दिया था। वह यह किसी गरीबका दस्तावेज़ था-ढाईसौ रुपय था-जेबकट! अपने फन का पग उस्ताद आप का। मियादके दो ही दिन बाकी थे। शायद दावा चाहे कितने ही चालाक क्यों न बनते हों अपने दिल दायर हानक लिए ही तिजोरीकी कैदसे जेबकी में ! पर, वह था जो आपको भी चकमा न देदे हवालातमें आया था ! तां अपना नाम बदल डाले ! बनियानकी भीतरी-जेब बीड़ीकी गख झाड़ते हुए, वह हमा, फिर श्राप से नोट निकाल ले और आपको यह भी शनाख्त न ही आप दस्तावेज़ फाड़ते और बीड़ी उस पर रखते हो पाए कि क्या हुआ ? नोटोंकी बात छोड़िय; क्यों हुए बोला-'चूसलो किसी गरीबका खून ! ये आये कि वे चुप रहते हैं ! रुपये-पैसों तक को वह इस सफाई ढाईसौ रुपये ?'' से घाद लेता कि-वाह ! वे तो जग-सा छेड़ने पर ही यह कागज था किसी नय कविको कविताकी चिल्ला उठते हैं न ? फिर भी वह उसके पास पहुँच मश्क ' कटा-पिटा ! सुधारके इन्तजाग्में ! पढ़ा ही न जाते और किसीको पता तक न चल पाता ! हाथकी गया ! जलनी आगमें इसे भी फेंकते हुए लिफाफा सकाई उसे याद थी, और अच्छी तरह ! उठाया ! ऊपर लिखा था-'बहुत जरूरी!' नीचे
घर आते ही उसने दिन-भरकी कमाईको देग्वना पाने वालेका पना, बन्द था। शायद पाने वाले के शुरू किया-'नोट, रुपये, पैसे, चवन्नी, दुनी, हाथों तक न पहुँचते पहुँचते बीच ही यहां आगया इकमी-तालीका गुच्छा, डायरी, और कुछ कागजात!' था। दस्ती खत था, डाकडिलेवरी नहीं। __नगद-नारायण सँभालके रक्खे, और फालतू खोला । और पढ़ने लगाचीजें एक ओर पटक दी ! घरमें तरह तरहकी चीजों प्यारे ! का 'अजायब-घर'-सा बन गया था ! जुदा-जुदा रंग- तुम मेरे हो और मैं तुम्हारी। आजसे नहीं, रूपकी, छोटी-बड़ी, रूल-पैंसिलोंका ढेर कुछ न होगा उन दिनोंसे जब तुम और मैं एक ही स्कूलमें किताबें तो पचास पैंसिलोंसे क्या कमका होगा?... पलटा करते थे। तुम्हें याद होगा, कि तुमने मुझे ___ वह गेटी-पानीसे फारिग हो, बीड़ी सुलगाता वचन दिया था-अन्नपूर्णा, शादी मैं तुम्हारे ही साथ हुमा, मा बैठा सन फालतू चीजों के पास ! वहीं, करूँगा, नहीं तो करूँगा ही नहीं ! इसके बाद बहुत जमीन पर ही-टूटे सन्दूकके महारे-अपलेटा हो, कुछ हुआ, सब तुम्हें मालूम है। देखने लगा-एक एक चीज!
अब तुमने चिट्ठीका उत्सर तक देना छोड़ दिया सायरी उठाई और पटक दी ! किसी मुकदमेबाज है। कई चिट्ठियाँ दे चुकी। आज अब शर्म छोड़कर