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भनेकान्त
[वर्ष ४
हैं। उनमें से प्रादिपुराण-टिप्पणका मंगलाचरण और निषः ॥९ साइपए स्थाति स्थाने ॥१० प्रणिन्द्वक प्रशस्ति ऊपर दी जाचुकी है। अब उत्तरपुराण के अनुक्तस्वरूपः । वसुसमगुणसरीरु सम्यक्त्वाद्यष्ट टिप्पण को लीजिये
गुणस्वरूपः। हयतिउ हतार्तिः ॥११ पढेविपाठं गृहं अन्तिम अंश
समडए । करिवइस । नामेवा वासा प्रवाहेण ॥ ___ इत्याचार्यप्रभाचंद्रदेवविरचितं उत्तरपुगणटिप्पणक इसके आगे वह श्लोक और प्रशस्ति है जो ऊपर द्वयधिकशततमः सन्धिः ।
दी जाचुकी है । यह उत्तरपुराण-टिप्पण श्रीचन्द्रके नित्यं तत्र तवप्रसन्नमनसा यत्पुण्यमत्यद्भुतं उत्तरपुराणसे भिन्न है । क्योंकि उसके अंतके टिप्पण यातस्तेन समस्तवस्तुविषयं चेतश्चमत्कारकः।
. प्रभाचंद्र के टिप्पणोंसे नहीं मिलते। प्रभाचंद्र के व्याख्यातं हि तदा पुराणममलं स्व (सु)स्पष्टमिष्टाक्षरैः भूयाचेतसि धीमतामतितरां चन्द्रावतारावधिः ॥२॥ टिप्पणका अंश ऊपर दिया गया है। श्रीचंद्रके टिप्पण तत्त्वाधारमहापुराणगम(ग)नद्यो(ज्ज्यो)तीजनानन्दनः। का अंतिम अंश यह हैसर्वप्राणिमनःप्रभेदपटुता प्रस्पष्टवाक्यैः करः। देसे सारए इतिसम्बन्धः । पढम ज्येष्ठा निरंगु भव्याजप्रतिबोधकः समुदितो भूभृत्प्रभाचंद्रतो कामः मुई मूकी । जलमंथणु अतिमकल्किनामेदं । जीयाट्टिपणकः प्रचंडतरणिः सर्वार्थमप्रतिः ॥२॥ विरसेसइगजिष्यति । पढेवि पाठग्रहणनामेदं । श्रीजयसिंहदेवगज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपर
इसके आगे ही 'श्रीविक्रमादित्य संवत्सरें आदि मेष्टि प्रणामोपार्जितामलपुण्यनिगकृताखिलमलकलंकेन श्रीप्रभाचंद्रपंडितेन महापुराणटिप्पणकं शतत्र्यधिक
प्रशम्ति है। सहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति । *
श्रीचंद्रके उत्तरपुराण टिप्पणकी श्लोकसंख्या ___ इससे मालूम होता है कि यह टिप्पण धारा- १७०० है जब कि प्रभाचंद्रके टिप्पणकी १३५० । निवासी पं० प्रभाचन्द्रने जयसिंहदेव (परमारनरेश क्योंकि सम्पूर्ण महापुगण-टिप्पणकी श्लोकसंख्या भोजदेवके उत्तराधिकारी)के राज्यमें रचा है। आदि. ३३०० बतलाई गई है और आदिपुगण की १६५० । पुगणके टिप्पणमें यद्यपि धागनिवासी और ३३०० मेंस प्रा० पु० टि० १६५० संख्या बाद देनेसे जयसिंहदेव राज्यका उल्लेख नहीं है और इसका १३५० संख्या रह जाती है। कारण यह है कि आदिपुगण स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है, जिस तरह श्रीचंद्रके बनाये हुए कई ग्रन्थ हैं महापुगणका ही अंश है परन्तु वह है इन्हीं जिनमेंसे तीनका परिचय ऊपर दिया जा चुका है प्रभाचंद्रका। ___इसी उत्तरपुराण टिप्पणकी एक प्रति आगरके उसी तरह प्रभाचंद्रके भी अनेक स्वतंत्र ग्रंथ और मोतीकटरेके मंदिरमें है जो साहित्यसन्देशक सम्पा- टीकाटिप्पण ग्रंथ हैं और उनमेंसे कईमें उन्होंने धारादक श्रीमहेन्द्रजीके द्वारा हमें देखनेको मिली थी। निवासी और जयसिंहदेवके राज्यका उल्लेख किया है उसकी पत्रसंख्या ३३ है और उसका दसग और जैसे कि आराधना कथाकोश (गद्य)में लिखा है३२ वा पत्र नष्ट होगया है । उसमें ३३ वें पत्रका श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरप्रारंभ इस तरह होता है
पंचपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमल* यह ग्रंथ जयपुरके पाटोदीके मंदिरके भंडारमें कलंकेन श्रीमत्प्रभाचंद्रपंडितेन भाराधनासत्कथाप्रबंध: (मथ नं० २३३) है।
कृतः।