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________________ किरण ५ ] त्रि०प्र०में उपलब्ध ऋषभदेवचरित्र केवलज्ञानके अनन्तर तीर्थंकर केवलियोंकी एक महती ध्वनिमें धर्मादि छह द्रव्यों, नव पदार्थों, सप्त तत्त्वों प्रौ मभा जुड़ती है जिसका नाम 'समवसरण' है। ऋषभदेवके पंचास्तिकायके स्वरूपादिका विशद वर्णन भव्यजीवोंके इस समयसरणका विस्तृत वर्णन पत्र ७४ से ८५ तक- सम्बोधनके लिये होता है। तदनुरूप ही ऋषभदेवकी १२ पत्रोंमें-दिया हुआ है, जो अपनी खाम विशेषता वाणी प्रवर्ती और उसमें पडद्रव्यादिकी प्ररूपणा हुई। रखता है और वह एक स्वतंत्र लेखका ही विषय है, जिसे भगवानकी वाणी तालु, कंठ, श्रोष्ठ श्रादिके व्यापारसे फिर किसी समय प्रकट किया जायगा। सामान्य कथन इस रहित होती है ( इसीसे शायद अनक्षरी कहलाती है) और विषयका पार्श्वपराणदि ग्रन्थों में दिया हुआ है, जो इससे बहुत उसका परिणमन सकलभाषाओंमें होता है-अर्थात् दिव्यकुछ मिलना जुलता है। ध्वनि अठारह प्रकारकी महाभाषाओं और सातसौ छुल्लकश्री ऋषभदेव चौंतीम अतिशय और अष्ट प्रातिहार्योसे भाषाओ (छोटी छोटी क्षुद्रभाषाश्रओं) में, जो अक्षर-अनक्षररूप मंयुक्त थे । इनका सामान्य कथन इस ग्रन्थमें दिया हुश्रा संज्ञी जीवोकी समस्तभाषाएँ कहलाती हैं, परिणत होती हैहै जिसे यहाँ छोड़ा जाता है। हाँ, इतना उल्लेख कर देना उम उम भाषा-भाषी जीव उसे अपने अपने समोपशमके उचित है कि चौंतीम अतिशयोंमें प्राचार्य यतिवृषभने अनुसार समझ लेते हैं। दिव्यध्वनिको देवकत अतिशयोंमें नहीं गिनाया है। किन्तु अमृत- निरके समान उम जिनचन्द्र-वाणीको सुनकर दिव्यध्वनि-सहित केवल जानके ११ अतिशय बतलाए है जो बारह मभाके जीव अनन्तगुणश्रेणीकी विशुद्धिमें अग्रणीय धानिकर्म के क्षयसे नीर्थकरोके केवलजान होनेपर होते हैं । होट कम खलजान होनपर होत है के होते हुए कर्म-पटलरूप असंख्यश्रेणीका छेदन करते हैअग्हंतोके व्यवहारानुसार भगवान ऋषभदेव उस भिदेव उस अर्थात् श्रात्मपरिणामांकी विशुद्धिसे कर्मोकी असंख्यात त प्रा (रत्नमयी) सिंहासनसे चार अंगुल ऊपर अंतरीक्षमें ऐसे गुणी निर्जरा करते हैं। इम तरह जिनेद्र के प्रभावसे भारतविराजे जैसे लोक-अलोकको प्रकाशित करने वाला अद्वितीय । क्षेत्रमं धर्मकी प्रवृत्ति होती है और भव्य-संघ मोक्ष मुखको सूर्य अाकाश मार्ग स्थित होx। केवली भगवानकी अनुपम दिव्यध्वनि स्वभावत: अस्व- + पगद व पगदी अम्वलिश्री सव्वं तिदिमि गावमुत्ताणि । लितरूपसे (बिना किमी रुकावटके) तीनो कालोमे नव महर्त णिम्मादि णिवमागी दिवमुणी जाव जायणय।। पर्यत होती है और एक योजन पर्यत जाती है-एक योजन ॥९१॥ में रहने वाले तिर्यच, देव और मनुष्योंके समूह उस वाणी संसंसुं ममय, गणहर-देविद-चक्कवट्टीणं । को सुनकर प्रतिबोधको प्राप्त होते हैं । शेष सममि गणधर, पाहाणुरूवमत्थं दिव्यज्भुणीण्य सत्तभंगीहि ॥९०२।। देवेन्द्र और चक्रवर्ती श्रादि महापुरुषों के प्रश्नोके अनुरूप ही छहव्वणवण्यत्त्था पंचट्ठीकाय सततकचाणि । उसमें पदार्थाका प्रतिपादन सप्तभंग रूपसे होता है। दिव्य- णाणाविहहेइहि दिव्वझुणीभाइ भव्वाणं ॥९०३।। - * पदामु भासामु तालुवदंतोट्टकंठवावागे। * धादिम्वएण जादा एक्कारस अदिसया महत्थरिया। पग्हिग्यि एककालं भवजण दिवभासित्तं ॥९००|| एतिस्थयगणं केवलणाणम्मि उप्पण्ण ॥ ९०४॥ अहग्स महाभामा खुल्लयभामा सयाई सत्त तदा । xचरंगलतगले उवरि सिंहासणाणि अरहता। अक्खर प्रणम्वरप य सरणी जीवाण सयलभासाश्री चेट्ठति गयणमग्गे लायालायप्पयासमत्तंडा ।।८९३।। ॥८९९॥
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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