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________________ ३१० अनेकान्त श्रापका प्रथम पारणा हुना, जिसमें इक्षुरसका श्राहार मिला और दूसरे दिनंके पारणेमें गाय के दूधसे निष्पन्न अन्न प्र हुआ + भगवान ऋषभदेव के सभी पारणा दिनोंमें दानविशुद्धिकी विशेषता के कारण पंचाश्वर्य हुए - श्राकाशसे रत्नवृष्टिका होना, बादलोंसे तरित देवोंका दुंदुभि बाजा बजाना, दानके उद्घोषका फैलना * सुगंधित शीतल वायु का चलना श्रौर श्राकाशसे दिव्य पुष्पोंकी वृष्टिका होना ये पाँच श्राश्वर्य कहलाते हैं । + एक्कवरिसंग उसहो इक्खुग्मं कुरणइ पारणं अवरे । गांवीरे पिणं श्रणं विदियंमि दिवमंमि || ६८ || [ वर्ष ४ भगवान ऋषभदेवने एक हज़ार वर्ष तक तपश्वरण किया । और फाल्गुण कृष्णा एकादशीको, पूर्वाह के समय तालपुर नगर में, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में 'केवलज्ञान' प्राप्त किया + | । | सव्त्राण पारणदिणे विडइ वर रयण वरसमंबर दो पण पण हृद दह लक्खं जेट्ठ' अवरं सहम्सभागं च ॥ ।। ६६९ ।। ( इस गाथामे रत्मवृष्टिकी संख्या भी बतलाई गई है, जिसका पाठकी अशुद्धिके कारण ठीक बोध नहीं हो सका । ) दत्त विसोहि बिसेसा भेदरिणमित्तं खु रयण मल्लीए । वायति दुदुहीओ देवा जलदेहिं अंतरिदा ।। ६७० ।। पसरइ दागुग्घोसो वादि सुगंधो सुसीयला पवणो । दिव्वकुसुमे गयणं वरिसइ इह पंचचोज्जारिण ।७७१ । केवलज्ञान प्राप्त होने पर सभी केवलीजिनका श्रौदारिक शरीर परमौदारिक हो जाता है और वह पृथ्वीसे ५ हजार धनुष ऊपर चला जाता है। उक्त ज्ञानके होने पर धर्मादिन्द्रोंके श्रामन कम्पायमान होते हैं । श्रासन कापने से इन्द्र, शंखनाद से भवनवासी, भेरीके शब्द से व्यंतर, मिहनादसे ज्योतिषी और घंटा के शब्दसे कल्पवासी देव भगवानकी केवलज्ञानोत्पत्तिको जानकर भक्तियुक्त होकर सात तेड चलकर नमस्कार करते हैं। और अहमिन्द्र भी ग्राम कम्पनसे केवलज्ञानोत्पत्तिको जानकर सात पैड चल कर उमी दिशामें जर्दी केवली होते हैं नमस्कार करते हैं X । तदनुसार ऋषभदेव के केवलज्ञान होने पर भी ये सब घटनाएं घटी। श्रादिपुराणादि प्रन्थोंमें छह महीना तपश्चरण के पश्चात् पारणा के लिये चर्याको जानेका उल्लेख है और अंतराय होने पर पुनः छह महीनाका योगधारण करनेका विधान किया गया है, इस तरह आदि पुराणादि ग्रंथोंसे भी एक वर्षमे पारणा होनेकी वात सिद्ध हो जाती है । परन्तु श्रादिपुराणादिमें अभी तक द्वितीयादिक पारणा विषयक उल्लेख देखनेमे नही † उसहादिसुं वासा सहस्म आया, यह इस ग्रंथका विशेष कथन 1 * दानोद्घोष में दान, दाता और पात्रको प्रशंसा की जाती है। ।। ६७ ।। + फग्गुणकिण्हेयाग्स पुव्त्ररहे पुरिमतालणयमि | उत्तरसाढे उसके उपरणं केवलं गाणं ।। ६७६ ।। X जादे केवल परमोगल जिरणारण सव्वाणं । गच्छदि उवरिं चावा पंचसहम्माणि वसुहाओ। ७०१ ।। भुवणत्तयम्स तासो अइसय कांडीय हादि पक्खोहो । सोहम्म हुदिईदा श्रसरण |ई पि कंपंति || ७०२ || तक्कपेणं इंदा संखघोमेण भवरणवासि सुग | पडखेहिं बेंतर सीह रिण देगा जोइसिया ||७०३|| घंटाइ कप्पवासी गागुत्पत्तिं जिणारण । दू । पणमंति भत्तिजुत्ता गंतूरणं सत्तविक्खाओ ||७०४|| अहमिंदा जे देवा आमरण कंपेण तं विणादू । गंतू तेन्तियं चिय तत्थठिया तं णमंति जिणे । ७८५ ।। -पर्व ४, पत्र ७३,७४ :...
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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