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________________ किरण ५ ] २- पंचम पम कर्मग्रन्थ सटीक - मूललेखक, देवेन्द्रसूर और चन्द्रपिं महत्तर । टीकाकार, देवेन्द्र सूरि और मलयगिरि । सम्पादक मुनि श्रीकांतिविजय जा र चतुरविजयजी | प्रकाशनम्थान, 'श्रीश्रात्मानन्दजैनमभा भाग्यनगर' । पृष्ठ संख्या ३४४ । बड़ा माइज मूल्य सजिल्द प्रतिका ४) रु० । प्रस्तुत ग्रंथ में दो कर्मग्रंथों का संग्रह है। इनका विषय नामसे ही स्पष्ट है। उनमें पंचम कर्मग्रंथका नाम है 'शतक' और दूसरेका नाम है 'सप्ततिका' । शतक नामक कर्मग्रंथ के कर्ता देवेन्द्रसूरि है, जिसकी कुल गाथा संख्या १०० है । आपकी इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी साथ में मुद्रित है जिसके अवलोकन करनेसे उक्त कर्मथका विषय स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है । देवेन्द्रसूरि कर्मसिद्धान्त के अच्छे विद्वान थे । इन्होंने प्राचीन कर्ममाहित्यका आलोडन करके उक्त कर्मग्रंथोंका मंलन किया है । इस पंचम कर्मग्रथमं 'ध्रुव वन्धिन्य' आदि बारह द्वार कहे गये हैं, क्षेत्रविपाक, जीवविपाक, भवविपाक और पुद्गलविपाक रूप चार विपाकका, तथा प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेशरूप चागे बंधांका और बन्धकं स्वामियां का कथन दिया हुआ है। अपनी स्वोपज्ञ वृ त्तमं इन का विस्तृत विवेचन किया गया है। साहित्य-समालोचन द्वितीय कर्मग्रंथ 'समतिका' नामक प्रकरण के कर्ता चन्द्रपि महत्तर कहे जाने है, जिसकी कुल गाथा संख्या ७२ है । परन्तु उक्त समतिका प्रकरण के संकलन कर्ता तरी पंचर ग्रह के कर्ता चन्द्रपि महत्तर नही है । इस प्रस्तावना मुनि श्री पुण्यविजयजीने अनेक युक्तियां सिद्ध किया है। मैंन भी इस बातको 'ताम्रकर्मग्रंथ और दि० पंचसंग्रह' शीपक अपने लेग्यमे दिखलाया था, जो अनेकान्तकं तृतीय वर्षकी ६ ठी किरन मुद्रित हुआ है । इस समनिका ग्रन्थ में बंध, उदय, मत्ता और प्रकृति स्थानोंका कथन किया गया है। इसके टीकाकार आचार्य मलयगिरिन उक्त विषयोंका अपनी टीकाम अच्छा स्पष्ट एवं विशद वर्णन दिया है। ३३५ दोनों ही कर्मप्रन्थोंका संशोधन और सम्पादन अच्छा हुआ है। इस संस्करणमे यह खास विशेषता पाई जाती है कि कर्मप्रन्थांक विषयका दिगम्बरी मूलाचार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड के साथ तुलना करके एक तुलनात्मक परिशिष्ट लगाया गया है, जिसे न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जीने बड़े परिश्रम से तैयार किया है। इससे धर्मग्रन्थोका तुलनात्मक अध्ययन करने वाले रिसर्च स्कालको विशेष सहायता मिल सकती है। ग्रंथ विद्वानोंके लिये संग्रह योग्य है । ३ - विश्ववाणी - सम्पादक, पं० विश्वम्भरनाथ | प्रकाशनस्थान, विश्ववाणी कार्यालय साउथमलाका, इलाहाबाद, वार्षिक मूल्य ६) रु०, एक अंकका ||5) | विश्ववाणी हिन्दी साहित्य संसारमे बड़ी सुन्दर पत्रिका है। 'भारत में अंगेजी राज्य' के रचयिता पं० सुन्दरलालजी की संरक्षकनामें यह पत्रिका जनवर्ग सन १९४९ मे उदित हुई है। इसके पांच अंक हमारे सामने है। इसे भारत के प्रायः सभी प्रमुख विद्वानों का सहयोग प्राप्त है । यह पत्रिका भारतीय संस्कृति की एकताका प्रतीक है, और हिन्दु-मुसलिम एकता का सफल बनाना ही इसका विशुद्ध लक्ष्य है। प्राचीन इतिहास पर भी वह कुछ थोड़ा थोड़ा प्रकाश डालती रहती है। लेखो कहानियों और कविताओंका चुनाव अच्छा रहता है। प्रायः सभी लेख पठनीय होते । खामकर मंजरथली मांख्नाकी 'आजाद हिन्दुस्तान मेन फौज होगी न हथियार होंगे' नामक लेखमाला बड़ी विचारपूर्ण है। प्रथम श्र में सम्पादककी 'दाराशिकोह' वाली कविता बड़ी सुन्दर 7 | पत्रिका का प्रत्येक अंक संग्रहणीय होता है । इस तरह की विचारपूर्ण सामग्रीको संकलन कर प्रकाशित करने के लिये संपादक महोदय बधाई के पात्र है। - परमानन्द शास्त्री
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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