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________________ दिगम्बर-जैनग्रन्थ-सूची [ लेखक-श्री अमरचंद नाहटा, मं० 'गजम्थानी' । भारतीय माहत्यमें दिगम्बर जैन साहित्यका भी नष्ट होगये और रहे सहे फिर नष्ट हो जायँगे। महत्वपूर्ण स्थान है । पर बड़े ही खेदकी बात है कि श्वेताम्बर साहित्यको बृहत टिप्पणिकाकी भातिक अद्यावधि इस विशाल एवं विशिष्ट साहित्य के इतिहास दि० जैनप्रन्योंकी भी कई प्राचीन सूचियाँ मिलती हैं, की त बात ही क्या ! प्रामाणिक ग्रन्थसूची तक भी जिनमसे ४ सूचियाँ पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्रीके प्रकाशित नहीं हुई। दि० जैन समाजम न धनकी की तत्वावधानमें स्याद्वादविद्यालय बनारसमें हैं। है न विद्वानोंकी, फिर भी ऐमा आवश्यक कार्य अभी उन्होंने उनके आधारसे “दि. जैनग्रन्थोंकी एक तक मम्पन्न नहीं हुआ, यह उनके लिये लज्जाकी बात बृहद सूची" नामक लंग्व जैनसिद्धान्तभास्करके है ! श्रे. भंडारोंकी शोध ग्योजकी अपेक्षा दि० ग्रंथों भाग ५ कि० ४ मे प्रकाशित भी किया था; पर उसमे की खांज ज्यादा सुगम है; क्योंकि श्रे० ग्रन्थ भंडार उन सूचियोंका पूरा उपयोग नहीं किया गया । यदि वे अधिकांश संघमनाके होने में कई ट्रम्टी श्रादि होते उन सृचियोंx में आये हुए ममम्त दि० जैनप्रन्थोंकी हैं और उन सबका एकत्र होकर भंडार खालना बहुत एक व्यवस्थित सूची तैयार करके व ग्रन्थ लम्य हैं कठिन हाता है तथा जो ग्रन्थ-भंडार व्यक्तिगत ना कहाँ पर ? इसका पता व अलभ्य हो तो उसका मालिकी-नियों श्रादिक कम है उनका देखना तो निर्देश करके एक ट्रैक्ट प्रकाशिन कर देने ना अत्यु और भी कठिन होजाता है-दिग्वावें या न दिखावें त्तम काय होता । उनकी इच्छा पर निर्भर है। तब दि० भंडार अधिका- पुगनी सूचियों एवं अन्य माधनोंक प्राधारम शमः दि० जैनमंदिगम ही हैं और उनकी देख रेख पर श्रीयुत पं० नाथूगमजी प्रेमानं करीब ३० वर्ष पूर्व प्रायः एक ही व्यक्ति रहता है अनः देखनेमें एक व्यक्ति जैनहितैपीम "दिगम्बर जैनग्रन्थकर्ना और उनक का ममझाकर ममय ले लिया जाय ना भंडार देखा ग्रन्थ" नामक लेख प्रकाशित किया था व उसे स्वतंत्र जा मकना है। हाँ, व्यक्तिगत मालिकीरूप भट्टारको टैक्ट रूपसे भी प्रकट किया था पर वह अब नहीं के कतिपय भंडार ऐम अवश्य हैं जिनका अवलोकन मिलता। उसके बाद अनेकों नये प्रन्यांका पता चला परिश्रममाध्य है । नागौर आदि के भंडार इमी श्रेणिके है तथा उममें उल्लिग्वित अनकों भूल भ्रान्तियांका हैं। दि० धनवान एवं प्रभावशाल' भाइयोंका कर्तव्य * ऐमी एक मची अभी मझ भी मनि कातिमागरजीमे है कि ने भट्रारजी आदिको नम्र वचनोंमें उपया- अवलोकनार्थ प्राप्त हुई हैं। गिता एवं लाभ बतलाकर उनकी सुव्यवस्था (पूरे x मचियोमें उत्तर भारत के दि ग्रन्यांका ही उल्लेग्न्व ज्ञानव्यके माथ सूची तैयार करली जाय व देग्वनेवाले नज़र श्राता है। दक्षिण भारत के महत्व पूर्ण वन्नड श्रादि को मौका दिया जाय) करवावें, अन्यथा हजारों ग्रंथ दि. जैनमाहत्यकी के. ई मची प्रकाशन हई नहीं देखी।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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