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दिगम्बर जैन ग्रन्थ-सूची
किरण ५ ]
उदघाटन भी हो चुका है। नवीन अनुसंधान से बहुतमी ज्ञातव्य सूचनायें एवं साधन भी उपलब्ध हो चुके हैं । अतएव अत्र दिः प्रन्थसूची का कार्य बहुन होना आवश्यक है।
शघ्र
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श्रीयुत प्रेमीजी के पत्र से अभी ज्ञात हुआ अपने लेखका एक संग्रह प्रकाशित करनेका प्रबंध कर रहे है. अब उनके प्रकाशित "दि० जैनप्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ" में जो कतिपय अशुद्धियाँ मेरे ara नका यहाँ स्पष्टीकरणा कर देना आवश्यक समझता हूं, ताकि भविष्यमे उन भूलभ्रान्तियोकी पुनरावृति न होने पाये :
०६ मे पददर्शनसमुच्चयका कर्ता कुमुदचंद्र लिखा है. संभवतः वह गलन है | पदर्शनसमुच्चय ग्रन्थ वेद हरिभद्रसूरिचित है।
०८ मे गुणरत्नाचार्यकी पददर्शनसमुच्चयकी टीम लिखी है वह तो श्वेताम्बर है।
प्र० ८ गुणभद्ररचिन धन्यकुमारचरित्र लिम्बा है। बीकानेर मे अभी मुझे उनके 'धनदत्रि' की एक पनि मिली है, संभवतः प्रन्थका नाम धन्य न होकर धनद होगा, या मुझे उपलब्ध ग्रंथ नवीन है।
०९ जगदेवकृत 'स्वप्नचिन्तामणि' ग्रंथ श्वं है । पृ० १० पाणिनीय काशिकावृत्तिकं कना जैनेन्द्रबुद्ध बौद्ध थे X |
पृ० ११ झाणझणका नेमिनाथकाव्य ० है एवं पृ० ३९ में उल्लिखित विक्रमरचित नेमिन और वह एक ही है । किसी किसी प्रतिमकर्ता 'भगा
लिखा मिलता है।
पृ० १० देवप्रभकृत पांडवचरित्र श्वेताम्बर ही है। पृ० १३ धर्मदासकृत उपदेशमिद्धान्त संभवतः श्वे० धर्मदासकी "उपदेशमाला" ही होगा। X यह विषय श्रभी विवादापन्न है ।
-संपादक
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पृ० १३ देवेन्द्रकृत यशोधरराम भाषाका एवं श्वे० संभव है ।
पृ० १६ का० श्रेयांसराम भी भाषाकृति है, कर्त्ता परिमल कौन था ? प्रति देखकर ठीक पता चलाना चाहिये ।
पृ० १७ पप्रीशतक के कर्त्ता नेमिचंद्र वे० ही थे। पृ० २४ भक्तामरकं कर्त्ता मानतं गरि भी
।
प्रः २२ वाग्भट्टालंकार टीका के कर्ता रत्नधीर श्वे ही थे ।
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पृ० २४ गणत्तमहोदधिके कर्ता वर्धमानमृि भी श्वेताम्बर थे ।
पृ० २५ वाग्भट्ट श्वेताम्बर ही थे । अष्टांग हृदय के कत्ता वाग्भट्ट जैनेनर थे ।
०२६ विनयचंद्रकी द्विसंधान टीका नहीं है, उनके शिष्य नेमिचंद्र की ( पृ० १५ ) ही है।
०२. शाभनकृत चतुर्विशनिका २० ही है। पृ० ३३ सिन्दूरप्रकर के कर्ना सोमप्रभ वं० ही थे । पृ० ३४ हेमचंद्ररचिन त्रिपटिशलाकाचरित्र खं० ही है।
पृ० ३५ प्रश्नात्तररत्नमालाको मिलानकर कत्त का निर्णय करना आवश्यक है।
पृ० ३५ चारित्रसिंह खरतरगच्छीय श्वं० थे । पृ० ३६ कातंत्र - व्याकरणकी वृत्तिके कर्ना दुर्गसिंह जैनेनर प्रतीत होते है, निश्चय करके लिखना
चाहिये ।
पृ० ३६ देवनिककृत कल्याण मंदिर-वृति वे० है । पृ० ३६ सुन्दरकृत भक्तामर वृति भी श्वं है । * यह विषय प्रत्यकी पद्यसंख्या माहन अभी विवादापन्न है । सम्पादक