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भ्रातृत्त्व
[ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन ]
छोटा था, उतनी ही नम्रता, शीलता और बुद्धिमत्ता इम कहावतको गलत साबित करने के लिए ही उसकी बड़ी थी । भाईके लिए उसका हृदय जितना शायद वे दोनों थे, कि ताली एक हाथसे नहीं बजती। ही कोमल था, कमठका उतना ही-अपने प्रेमपूर्ण
पोदनपुर के महागजा अरविन्द के प्रधानमंत्री महोदरक लिए वछ । मरुभूतिका मन नवनीत था, थे-विश्वभूनि । विश्वभूतिकी स्त्रीका नाम था- तो कमठका था नीरस पत्थर ! अनुधरी । और वे दोनों उसीके पुत्र थे । बड़े कवर स्वभावका वह अच्छा नहीं था, और मूर्ख तो था माहबका नाम था-कमठ, और छोटेका मरुभूति। ही। माथ ही उसमें जो सबसे बड़ी बुराई थी, वह शादी दोनों की हो चुकी थी । न होनकी तो कोई बात यह थी कि वह ममभूतिको अपना शत्र समझता था, ही नहीं थी, प्रधान-मंत्रीक पुत्र जो ठहरे ! जब कि मरुभूति उसे अपना बड़ा या पूज्य ! और __ करुणा थी कमठकी स्त्री, और वसुन्धरी, कंवर देवताकी तरह पूजता था। मरुभूतिकी पत्नी । स्त्रियाँ दोनोंकी भली थीं । जेठानी मरुभूनि चाहता-भाईकी प्रमन्नताके लिए अगर देवरानीमें द्वन्द होता नहीं देखा गया। मम्भव है, जलनी-ज्वालामें भी कूदना पड़े तो दुःखकी बात नहीं। दोनोंके आगे ऐमा मौका ही दरपेश न हुआ हो। इस उनका 'चत्त, शरीर दुःम्बी न रहे। लिए कि दोनोंकी अट्टालिकाएँ जुदा जुदा थी, लेकिन और कमठ मोचना-अधिकमे अधिक दुग्वः एक-दूमरीम मिली हुई । हा मकना है. मन मिल हाने इम उठाना पड़े तो अच्छा। की वजह भी यही हो।
पना नहीं क्यों ? पर कमठ, मरुभूतसं जलता __ पर, दोनों भाइयोंम वैमी बात नहीं थी ! व एक था खूब । केवल मन ही मनमें जलता कुढ़ता रहता दरख्तकी वैसी दो शाम्बाओं की तरह थे, जिनमें एक हो, सो बात नहीं । वह मब भी करता, जा कर सकता, का मुंह पर्वकी तरफ, ता दुसरीका पश्चिमकी ओर। जिनमें मरुभूनिका दुःख पहुंचे, पीड़ा मिले । या कह लीजिए-वह विप्र-ममुद्रमं निकले हुए दो पर, रहे दोनों अपने अपने रास्ते पर अडिग । रत्न थे-अमृत और विष ।
न उसने अपनी दुर्जनता छोड़ी, और न ममभूतिने ___ मरुभूतिको अगर 'अमृत' कहा जा सकता है, तो अपनी सज्जनताको हाथसं जाने दिया। कमठको 'विष' कह देनमें जग भी मंकांची जरूरत * * * * नहीं । कमठ बड़ा था तो उसकी दुष्टता, पशुता और उस दिन अचानक दर्पण देखने वक्त विश्वभूति मुखना भी छोटी नहीं थी। और मरुभूति जितना की नज़र अपने मफेद बालों पर जो गई तो घबड़ा