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व्याकरण, न्याय, धर्म, कथा, कोश, छंद, रस, अलंकार, श्रात्मिक और दार्शनिक ग्रन्थों द्वारा संस्कृतभाषा हर प्रकार से परिपूर्ण, पुष्ट और सर्वाङ्गसुन्दर बन गई थी। यही कारण है कि इस कालने हरिभद्र-सुरिको संस्कृत में ग्रन्थ रचना करने, जैनसाहित्यको हर दिशामें वैदिक और बौद्ध साहित्य की समकक्षता में लाने, तथा साहित्यिक धरातलको ऊँचा उठाने में हर प्रकारकी प्रेरणा और उत्साह प्रदान किया । पर्य यह है कि संस्कृत साहित्यकी दृष्टि से यह काल हरिभद्रसूरि के लिए एक सुन्दर स्वर्णयुग था । कहनेकी श्राव
भाग्य - गीत
[ रचयिता - श्री 'भगवन 'जैन ]
अनेकान्त
[ वर्ष ४
श्यकता नहीं कि हरिभद्रने इसका अच्छा उपयोग किया और अपने पवित्र संकल्प में श्राशासे भी अधिक सफलता प्राप्त की। संस्कृत के गद्य और पद्य दोनों प्रकारके साहित्यने हरिभद्रको प्राकर्षित किया और तर्कशास्त्र तो इनको अपने आपमें सराबोर ही कर दिया। यही कारण है कि श्राप इतने सुन्दर ग्रन्थ विश्व-साहित्यके सम्मुख रख सके । निस्संदेह हरिभद्रका साहित्य भारतीय साहित्य एवं विश्व दार्शनिक साहित्यके सम्मुख गौरव पूर्वक कंधे से कंधा भिड़ा कर खड़ा रह सकता है। (पूर्ण)
किस्मतका लिखा न टलता है ! हर बार टालने का प्रयत्न, देता हमको सफलता है ! स्मितका लिखा न टलता है !!
ये कृष्ण और बल्देव बड़े, योधा भी और भाग्यशाली ! पर, हुआ द्वारिका-दहन जभी, चेष्टाएँ गई सभी खाली ! जलनिधिको लाये काट-काट, लेकिन जल भी वह जलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !!
वह सीता - महासती कहकर, हम जिसको शीश झुकाते हैं ! रोती है उसको सब जनता, जब राम विपिन ले जाते हैं ! फिर वही प्रयोध्याका समाज, श्रानेपर जहर उगलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !!
जना - सतीका विरह जहाँ, पवनंजयको था दुखदाई ! फिर जरा भ्रांतिकी आड़ मिली, तो वह कठोरता दिखलाई ! दानवता उसको कहें या कि, हम कहें भाग्यकी खलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !!
जब बड़े-बड़े इसके नागे, थककर हताश हो रहते हैं ! तो हम-तुम तो क्या चीज रहे, जो सूखे तृण ज्यों बहते हैं ! हम इसके पीछे चलते हैं, यह श्रागेश्रागे चलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !!