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________________ भनेकान्त रहना पापका-आमाके पतनका कारण है। और इस लिये जिक्र तक नहीं माने दिया था।" बहविवेकको अपनाकर तथा ममरको पाकर अपमेको दानको मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त मानकर करमा कितनी पाप-भारसेसका रखनेकी रप्टिसं उसका लोकहितार्थ स्याग सुन्दर कल्पना और कितनी सुन्दर मनोभावना है, इसे कुछ करता--दान करता है। दान इन दोनों प्रकारों में परस्पर भी कहते नहीं बनता। निःसन्देह, परिग्रहमें पापबुद्धिका होना, किनमा बदामतरी,इसे महदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। उसके प्रायश्चित्तकी बराबर भावना रखना और समय समय उस दिन श्रीमान बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता पर उसे करते रहना विवेकका-अनासक्रिका सूचक है और केता."सितम्बर सन् १६४१ पत्र परमे मेरा ध्यान साथ ही प्राप्माकी जागृतिका---उसके उत्थानका तक है। इस अन्तरकी ओर खास तौरपर प्राकर्षित हुमा । अापने ही यदि जैन समाजमें दानके पीछे ऐसी सद्भावनाएँ काम करने मुझे सबसे पहले अपने अनेक बार किये गये हजारोंक दानों लगें तो उसका शीघ्र ही उत्थान हो सकता है और वह ठीक को 'मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त' बतलाया और उस प्रायश्चित्त अर्थमें सचमुच ही एक मादर्श धार्मिक-समाज बन सकता है। को भी 'प्रधूरा ही लिखा । इस विषयमें आपके पत्रके निम्न जैनगृहस्थोंकी नित्य-नियमसे की जाने वाली षट मावश्यक शब्द, जो सही धार्मिक परिणतिकी एक मॉकी दिखला रहे क्रियाओंमें जो दानका विधान (समावेश) किया गया है उसका हैं, खास तोरसे ध्यान देने तथा मनन करनेके योग्य हैं-- प्राशय संभवतः यही जान पड़ता है कि निस्यके प्रारम्भ परि___"आपने भाई फूलचन्दजीका चित्र मगाया-सो मुख्तार ग्रहजनित पापका नित्य ही थोड़ा बहुत प्रायश्चित्त होता रहे, साहब, भाप जानते हैं हम लोग नामसे सदा दूर रहे हैं। जिससे पापका बोमा अधिक बढ़ने न पाव और गृहस्थजन चित्र तो उनका अपना चाहिये जो दान करें. हम लोग तो निराकुलता-पूर्वक धर्मका साधन कर सकें--उनके उस कार्य मात्र परिग्रहका प्रायश्चित-अधूरा ही-करते हैं। फिर भी में बाधा उपस्थित न होने पावे । अस्तु, हार्दिक जरा जरामी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं भावना है कि जैनसमाजमें बहुलनासे ऐसे प्रादर्श त्यागी एवं तो दम्भ अवश्य है। प्रस्तुपमा करें। भापको शायद याद दानी पैदा है। जो परिग्रहको पाप समझते हुए उसमें होगा इन्हीं भाई साहबको मैंने उत्साहित कर प्रारा-पाश्रम प्रासक्ति म रखते ही और प्रायश्चित्तके रूप में सदैव उसका (जेमवासा-विश्राम)को ३००००) (तीस हजार) क. दिलवाये --अपनी धनसम्पशिका-जोकसेवाके कार्यों में विनियोग करने थे और उस सहायनाके सम्बन्धमें आज तक मन पत्रोम में सावधान रहें। वीरसंवामन्दिर, सरसावा धार्मिक-साहित्यमें अश्लीलता श्री किशोरीलाल पनश्यामदास मशरुवाला विचार : ____ "हमारे धार्मिक साहित्य और कलामें भी अश्लील चीजें भरी पड़ी हैं। उन्हें धार्मिक श्रद्धाके साथ जोड़ दिया गया है। इसलिय मजन और सदाचारी भक्त भी उनका गौरव करते हैं, और उसकी अश्लीलता के प्रति दुर्लक्ष करने हैं, जो विचार न्यूनताका ही परिणाम है। सुना है कि वारांगनाएँ भी तो धार्मिक साहित्य और कलाकी चीजें ही अपने ग्राहकोंके आगे पेश करती हैं। उनका हेतु निश्चय काम-प्रकोप कराने का ही होता है, और व इन चीजोंको उसके लिये उपयुक्त ममझनी है, तभी तो इनका प्राश्रय लेती है । दभी और पाखंडी गुरु क्यों अपनी शिष्याओंके माथ कृष्ण-गोपीका अनुकरण करते हुए पाये जाते हैं ? धर्मके नामपर साहित्य और कलामें अश्लील चीजें पैठी हुई हैं, तभी तो वे उसका अनुचित लाभ उठाते है। ये चीजें धार्मिक साहित्य और कलाम होने के कारण ही मैं उन्हें शुद्ध, निर्दोष, या श्लील कहने के लिये तैयार नहीं हूँ । बल्कि मैं कहूँगा कि कृष्ण गोपी और दूसरे भी देवोंके ऐसे शृंगार वर्णन और उसे युक्त मनाने बाले तत्त्व-विचारने हमारी संस्कृति और समाजमें बहुत कुछ अपवित्रता और गंदगी फैलादी है, और हमारे समाजको बहुत गिराया है।" ('जीवनसाहित्य में प्रकाशित 'सापेक्षतावाद' लेखसे उधृत)
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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