SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बिरबह परिग्रहका प्रायश्चित्त ४८२ गये हैं। ऐसी हालत परिवारको पाप न मानकर उसका अब देखना यह है कि परिमाका मरिसका। पारिवन करना और उसे भविष्यकी बोरसे कार्यो बन्द परिग्रहका समुचित प्रायश्चित अनासक्ति के साथ साथ उसका करके बराबर बढ़ाते रहना, निःसन्देह वही भारी भूल है- त्याग है, जो प्राणकी विपरीत दिशाको दिये हुए होनेस भारम-वंचना है। इस भूलके वश परिग्रह पापकी पोट बढ़ते यथार्थ जान पड़ता है। शीतका प्रतिकार जिस प्रकार उससे बढ़ते मनुष्यको घोर अभ्रसागर अथवा दुःखसागरमें ले दबती और उज्यका प्रतिकार शीतसे होता है, उसी प्रकार प्रारूप है, ऑम्ले उतार पाना फिर बहुत ही कठिन, गुरुतर कप्टसाध्य परिग्रहका प्रतिकार उसके बासे ही ठीक बनता है। प्रायतथा असंख्य वर्षाका कार्य हो जाता है। और इसलिये वे ही रिचत्तके दस अथवा मग भेवोंमें त्याग' गामका भी एक मनुष्य विवेकी है, वे ही बुद्धिमान हैं और वे ही प्रारमहितेषी प्रायश्चित्त है, जिसे न वेक' भी कहते हैं। वाणका दूसरा एवं धर्मात्मा जोम भूल तथा ग्रामवंचनाके चहरमें न नाम 'दान' है, भोर इसलिये परिपडसे मोहटाकर अथवा पड़कर अनासक्रिकं द्वारा परिग्रहका अधिक भार अपने प्रारमा अपनी धन-सम्पत्तिसं ममत्व परिणामको दूर करके लोकसेवा पर पवन नहीं देते, और प्रायश्चित्तादिक द्वारा बराबर उसकी के कार्मो में उसका वितरण करना-- डासना, यह परिग्रह काट-काट करके अपनं माम्माको सव हलका रखते हैं। का समुचित प्रायश्चित्त ।। परन्तु यह बाल अथवा त्याग ख्याति-लाभ-पूजादिककी रष्टिसेनहोना चाहिये और न इस रखने योग्य हैं, जिनसे इस विषयकी कितनी ही पष्टि होती है"के पुनस्ते सर्वदोषानुषङ्गाः ? ममेदमिति सिति संकल्पे में दूसरोंपर अनुग्रह अथवा कृपाकी कोई महंभावना ही (सं) रचयादयः संजायन्ते। तत्र च हिमाऽवश्यंभाविनी रहनी चाहिये । जो दान ख्याति-लाभ-पूजाविककी रष्टिसे तदर्थमनृतं जल्पति, चौर्य चाचरति, मैथुने च कर्मणि दिया जाता है अथवा जिसमें दूसरों पर अमह और रुपाकी प्रयतते । ततत्पभवा:नरकादिषु दुःखपकाराः। इहापि अनुपर महंभावना सती है वह प्रायश्चित्तकी कोटिमें नहीं मातातव्यसन-महार्णवाऽवगाहनम् ।" -राजवार्तिक-भाष्ये. अकलंक: वह दूसरे प्रकारका माधारण दाम प्रायश्चितकी रचितो "परिग्रहवता सता भयमवश्यमापद्यते, अपने पापका संशोधन अथवा अपराधका परिमार्जन करके प्रकोप-परिहिंसने च परुषाऽनन-व्याहती। मात्मशुद्धि करनेकी मोर होती है, और इसलिये उसका करने ममत्वमथ चोरता स्वमनमश्च विभ्रान्तता, बाखा नाम कर किसी पर कोई हसान-अनुहा नहीं जतकुतोहि कलुषात्मनां परमशुक्ल-सद्ध्यानता ॥४२॥" जाना और न उससे अपना कोई सौकिकलाम ही लेना चाहता -पात्रकेसरिस्तोत्र है। वह तो समझता है कि--'मैंने अपनी जलसे अधिक * "बहारम्भ-परिग्रात्वं नारकस्यायुषः” (तत्त्वार्थसूत्र ६-१५) परिग्रहका संचय करके इसरोंको उसके भोग-श्पमोगसे "एतदुक्तं भवति-परिग्रहप्रणिधानप्रयुक्ताः तीबतरपरि- वंचित रखनका अपराध किया है, उसके भजन-अर्धन-सामादि खामा हिंसापरा बहुशोविज्ञप्ताश्चानुमता: भाविताश्च तत्कृत- में मुझे कितने ही पाप करने पड़े, उसका निरगंज बढ़ते कर्मात्मसातकरणात् तप्तायः पिण्डवत् अदितक्रोधार्या नार- बालोचना प्रतिकाम्ति यं त्यागो विसर्जन। मालोचना कस्यायुषः पालव इति संक्षेपः । तद्विस्तरन्तु......"1" । तपः खेदोऽपि मूलं च परिहारोऽभिरोचनम् ॥ (राबवार्तिक माध्य) (प्रायधिच मु. १८५) प्रारम्भो जन्तुपात करायाश्च परिणात् । "मालोचन-प्रतिकमब-तदुभय-विवेक मात्सर्ग-सपश्खेदजायन्तेऽत्र तत: पात: प्राणिना श्वभसागरे ॥ (अनार्यव) परिहारोपस्थापनाः।" (तस्वार्थ)
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy