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________________ शैतानी गुफामें साधु किरण २] afratri स्वार्थ तथा परार्थको परस्पर में शत्रुके समान गिनना चाहिए, वह अधिकार तो तुम कभीकं पार कर चुके हो। अब दोनों ही तुम्हारे लिए अर्थहीन है । वे अब तुम्हारा स्पर्श तक नहीं कर सकते । - स्थूल० - यह द्वन्द कहाँ तक सम्भव है ? संभू०ि - जहां तक आत्मा याचना करता रहता है, वहाँ तक । ज्योंही य चना करना बन्द हुआ— सबके लिए देता ही रहे, अपने लिए कुछ न ग्खेजिसे जो चाहिए उसके पास से ले और दान करनेके अभिमानको त्यागकर देता ही जाय, त्योही स्वार्थ तथा परार्थकी बालकों-नादानों के लिए बाँधी गई मर्यादाएँ टूट जाती हैं और आत्म त्यागके अनन्त आकाशमें आत्मा रमण करने लगता है । भद्र ! तुम भी उसी प्रदेशके बिहारी हो । स्थूल० – नाथ ! हृदयका खिंचाव स्वार्थ बिना किस प्रकार सम्भव है ? यही बात मुझे खटकती है । जिस प्रकार उस आकर्षणको मैं रोक नहीं सकता, उसी प्रकार वहाँ जानमें भी कल्याणका कोई निमित्त देखने नहीं आता । पुराने शत्रु मुझे पुकारते हुए मालूम पड़ते हैं। संभूति० - तात ! तुम्हारी सब बातें मैं समझ गया; परन्तु तुम्हारा मन वहां कुछ याचना करनेको तां जाता ही नहीं है, जाता है तो कंवल अर्पण करने कां । क्या ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं होता ? स्थूल० - प्रभो ! जिस समय मैं नवीन रुधिरका शिकारी था, बालाओं के यौवन-रसको तरमता था, और विषय के घंटको प्रेमामृत जानकर पीता था, उस समय मुझपर थूल परन्तु अचलरूप से जो श्रासक्त थी, उसी कोशा के घर में, यह चतुर्मास व्यतीत करनेको मेरा मन चाहता है। पुराने समय की सौन्दर्यलिप्सा १७६ तो अब क्षय हो चुकी है, परन्तु किसी समय जो मुझे इन्द्रियजन्य आनन्द देती थी तथा विषय सुखकी परिसीमाका अनुभव कराती थी, उसी अज्ञान बालाको, उसके प्रेमका बदला देनेके लिए, मैं उत्सुक हूँ । यह बात सही है कि मैं वहां याचना करनेको नहीं किन्तु अर्पण करने को जाता हूँ, तथापि वह अर्पण पूर्वकी स्थूल प्रीतिकं उत्तर रूप होने से, वहाँ भी मुझे स्वार्थकी ही दुर्गन्ध आती है। संसार कोशाके समान स्त्रियोंमें भरा पड़ा है, उन सबपर अनुग्रह करने के लिए यह चित्त आकर्षित न होकर, केवल कोशा ही की ओर खिंचता है, क्या इससे मेरे श्रात्मत्यागकी अल्प मर्यादा सूचित नहीं होती ? संभूति०१० - भद्र ! वीर्यवान् श्रात्माएँ, जिस स्थान पर, एक बार पराजित हो जाती हैं, विषयके पङ्कमें धँस जाती हैं, उसी स्थलपर वे विजय प्राप्त करने के लिए, आकांक्षायुक्त होती हैं और जहाँ तक वे याचना की प्रत्येक अभिलाषाका पराभव करने योग्य पराक्रम प्राप्त करके, याचनाके, भारी भारी खिंचाव के स्थानपर भी अर्पण करनेके लिए तत्पर न हो जायँ तहाँ तक वे आत्माएँ निर्बल तथा सत्वहीन गिनने योग्य हैं। कोशा के यहाँ चतुर्मास करनेके तुम्हारे विचार स्वार्थकी संज्ञा घटिन नहीं होती । तुम्हारी मा याचनाके उत्कृष्ट आकर्षण के स्थलपर, अर्पण करनेको कसौटीपर कम जानके लिए उद्यत हुई है, इमी लिए उसे यह तलमलाहट हो रही है। तुम्हें अब किसी प्रकारका भय खाना उचित नहीं है । याचना करनेका तुम्हारा स्वभाव अब एक पुराना इतिहास हो चुका है। स्थूल पर क्या साधुष्यों को वेश्या - गृहमें चतुर्मास करना उचित है ?
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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