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________________ (८. अनेकान्त [ वर्ष ४ संभूति-जो साधु याचनाका पात्र है, उसे वैगग्यस शृंगारर , गतिका क्रम एकाएक कभी नहीं उसके खिंचावसे भागने फिरमेकी आवश्यकता है होता । एक स्थितिसं दूसरी स्थितिमें गमन करनेका और इसी कारण तुम्हारे सहयोगी साधुओंको ऐसे नियम क्रमिक (Evolutionary) होता है । एकास्थानमें भेजा है, जहाँ उस प्रकारके खिंचावका लेश- एक और तुरन्त कुछ भी नहीं बनता । यदि बन भी मात्र भी सम्भव न हो। परन्तु जिस देना ही है और जाय तो वह क्षणिक और अस्थायी होता है । त्याग लेना कुछ भी नहीं है-अपने लिए कुछ भी नहीं किये हुए विषयकी शक्ति अनूकूल नियमक प्रसङ्गपर रखना है-उसे तो याचनाके खिंचाव वाले प्रदेशमें, सहस्रगुणे अधिक बलसं सताती है, और अन्तमें विजय प्राप्त करके, जगतपर त्यागका सिक्का जमानेकी आत्माको मूलस्थितिमें घसीट ले जाती है। किसी आवश्यकता है। तात ! तुम सरीग्वोंके पाम तो जो भी विषयक प्रति अनासक्तिका उद्भव उसकी अतिकुछ है, उस बस्तीमें खुले हाथों बाँटते फिग्नेकी तृप्तिमेंस नहीं होता; तृप्तिमात्र तो उस विषयका पोषण जरूरत है। संसारको तुम्हारे समान व्यक्तियोंसे बहुत ही करता है । भद्र ! तू श्रृंगारमें पला हुआ है । एक कुछ सीखना और प्राप्त करना है। जब आत्मा पूर्ण समय तू शृगारका कीड़ा था और एक ही क्षणमें रूपसे भर जाता है, उसे कुछ इच्छा नहीं रहती, तूने श्रृंगारमेंस वैगग्यमे प्रवेश किया था, यह धक्का तब उसका आत्म-भण्डार अमूल्य रत्नोंसे उछलने प्रकृति कैसे सहन कर सकती है ? पृथ्वीपर तो धीरे लगता है। और इन रत्नोंको संसार खुले हाथों लूटता ही चलनेमें कल्याण है; शीघ्र चलनेस फिसल पड़ते है-जिसको जितना चाहिए, वह उतना ले-उसके हैं, और छलांग माग्नेम तो पैर ही टूट जाते हैं। लिए उसको जगतके आकर्षणके केन्द्रमें शिखरपर तून तो पैर ही तोड़-बैठने के समान साहस किया था, खड़े रहनेकी आवश्यकता है। कुछ आत्माएँ बलिष्ठ परन्तु तेरा पुरुषार्थ तथा पूर्वकर्म अद्वितीय था, इसी होनेपर भी याचना वाले स्थानपर ठहर सकनके लिए से तू बच गया। तुम्हारे स्थानमें यदि कोई दूसरा नितान्त अनुपयुक्त होती हैं। उन्हींके लिए शास्त्रकारों सामान्य मनुष्य होता तो वह फिरसे पूर्व विषयके ने याचनाके स्थानसे अलग जाकर, गुफाओंमें अमलकी और कभीका खिंच जाता। परन्तु तुम कल्याण-माधन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। कितने ही पुरुषार्थी और सवीर्य हो तो भी अन्तमें उन विधानोंका निर्माण तुम्हारे सरीखे वीर्यवान् प्रकृति तुमसे छोटेसे छोटा भी बदला लिए बिना न पुरुषोंके लिए नहीं हुआ है। छोड़ेगी। जब तक तुम कोशाका दर्शन न कगंगे, स्थूल०--प्रभो ! परन्तु मैं समझता हूं कि मात्र अपने पूर्वके विलास-स्थलकी और दृष्टि न फरोगे, दृष्टान्त ही खड़ा करने के लिए साधुओंके प्राचारको तब तक तुम्हारे आत्माको शान्ति न मिलेगी; क्योंकि शिष्ट प्रणालीका लोप करना उचित नहीं है। अभी इन संस्कारोंको तुम बिलकुल कुचलकर नहीं ___ संभूति०-- तात ! अपना पूर्वका इतिहास म्मरण आये हो। विगग उत्पन्न होनेके पश्चात्, वहाँ अल्पकगे। प्रकृति किसी भी आकस्मिक झटकेको, सहन काल रहकर-प्रबल निमित्तोंकी कसौटीपर चढ़ ही नही कर सकती। शृंगारमेंसे वैगग्यमें, तथा कर-और पिछले संस्कारोंको कुचलकर, यदि तुम
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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