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नेमिनिर्वाण काव्य- परिचय
(ले० पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य)
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ये मात्र कवि ही नहीं थे किन्तु अलंकार-शास्त्र
प्राचीन कवियों में 'वाग्भट' का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। जैन- अजैन छात्र भारी कठिनाई से बच सकते हैं । संस्कृत भाषा में जैन छात्रोकी अव्युत्पतिका मुख्यकारण काव्यग्रन्थो की टीकाका अभाव भी माना जा सकता है। प्रायः सभी विद्यालयोंके अध्यापक हिन्दी अर्थ बता कर काव्यग्रन्थोंकी पढ़ाई समाप्त कर देते हैं समास, अलंकार, रस, ध्वनि छन्द आदिकी तरफ उनकी दृष्टि नहीं जाती। यदि कोई परिश्रमी अध्यापक इन सब विषयोको बतलाना भी है तो बिना आधार के लाभगण उनकी धारणा नहीं रख पाते, स लिये श्रध्यापकका परिश्रम व्यर्थ होता है। श्राज जैनममाज में अनेक साहित्याचार्य तथा काव्यतीर्थ विद्वान् विद्यमान है, जो साहित्य विषयके प्रौद विद्वान माने जा सकते हैं, उनकी लेखनी से समस्त काव्यग्रन्थोकी टीएं बनवाई जा सकी है, परन्तु उनके प्रकाशन के लिये कोई संस्था म्रमर नहीं हो रही है। जिन संस्था धोका प्रयोजन सिर्फ पैसा प्राप्त करना है उन संस्थाओोसे तो इनके प्रकाशनोकी आशा रखना व्यर्थ है; क्योंकि वर्तमान में उन ग्रन्थोंकी विक्री कम होती है जिससे प्रकाशफोंका पैसा उनमें रुक जाता है। दा किन्ही नि:स्वार्थ संस्थाओोसे, जिनका उद्देश्य पैसा कमानेकी अपेक्षा प्रचार ही अधिक हो, यह काम हो सकता है । साधारण जनतामें प्रचार हो इस खयाल से हिन्दी टीकाएं भी साथ में दे दी जावें तो अधिक प्रचार हो सकता है । क्या कोई संस्था इस आवश्यक कार्यकी तरफ अपनी डालेगी ?
विद्वान् भी थे। इनकी सफल लेखनी द्वारा लिंग्वे गये 'वाग्भटालंकार' का जैन श्रजैन दोनों समाजोंमें पर्याप्त प्रचार व सम्मान है। इन्हीं विकी प्राफल लेखनीसे 'नैमिनिर्वाण काव्य भी लिखा गया है, जिसकी रचना श्रत्यन्त सुन्दर है । वाग्मटने 'नैमिनिया' काव्यके अनेक उदाहरण अपने वाग्मटालंकारमें उड़त किये है। मिनिया निर्णय उद्धृत नेमिनिर्वाण सागर प्रेम बम्बई से प्रकाशित हो चुका है, इसमें १५ मर्ग हैं और सब मिला कर ५८ पद्य हैं। इसमें बाईसवें तीर्थ कर भी नेमिनाथ भगवान्का जन्म लेकर निर्माण-मुक्ति प्राप्ति तकका जीवन चरित्र दिया गया है । यद्यपि नेमिनाथ स्वामीका जीवन चरित्र नेमिपुराण तथा हरवंशपुराण आदि में भी पाया जाता है परन्तु मरम सुभग रीति से वर्णन करने वाला प्रायः यही एक महाकाव्य है ।
यशस्तिलक दिसन्धान और पार्श्वभ्युदय जैसे कुछ काव्य ग्रन्थोंको छोड़कर प्रायः सभी जैनसाहित्य और काव्यग्रन्थ संस्कृत टीकासे शून्य हैं। इसलिये आज विकाशवाद के ममय भी उनका पर्या प्रचार नहीं हो रहा है। हमारे समाजका ध्यान धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्र के प्रत्योंके प्रका शनकी श्रोर अग्रसर हुआ है इस बात की प्रसन्नता है, परंतु काव्य और व्याकरण शास्त्र के उत्तम प्रकाशनोंकी ओर उस का ध्यान बिल्कुल भी नहीं है यह देख कर अत्यन्त दुःख होता है ! यदि निर्णयसागर प्रेस बम्बई के उदारमना मालिक पाण्डुरङ्ग जावजीने अपनी काव्यमालासे चन्द्रप्रभ, धर्मशर्मा भ्युदय, यशस्तिलकचम्पू, दिसन्धान आदि जैन काव्यमन्यो को प्रकाशित न कराया होता तो शायद ही वे अन्य इस समय हम लोगोंके दृष्टिगत होते ।
यदि समस्त जैन काव्य और साहित्यग्रन्थोंके सटीक संस्करण प्रकाशित हो जाये तो उनका प्रचार अन यूनि वर्सिटियोसे अनायास ही हो सकता है। तथा पहने वाले
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आज बाजारमें मेदूनकी २५-३० टीकाएं विकरही है परन्तु 'पाश्वभ्युदय' को कौन जानता है ? वर्षो पहिले बम्बई से उसका एक सटीक संस्करण प्रकाशित हुआ था जो कि बहुत अशुद्ध हुआ है 'पिकान्तकौर कितना सुन्दर नाटक है परन्तु उसका प्रचार श्रत्यन्त श्रम है । उसका एक संस्करण माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है परन्तु वह भी अशुद्ध है। 'अलंकारचिन्तामणि' नवीन और प्राचीन शैलीका संमिलित लक्षणन्य है, परन्तु