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________________ किरण ६-७] नेमिनिर्वाण-काव्य-परिचय ३५१ वह कितना अशुद्ध और अमंस्कृत हो कर छपा है इसे कौन वर्णन किया है। परन्त नवीन साहित्यकारोने शब्दालंकारको नहीं जानता ? अच्छे २ विद्वान् भी उसके पढ़ानेमे मंह काव्यान्तर्गइभततया-कायके अन्दर गलगण्डके समान मोड़ते हैं। 'गदाचिन्तामणि' क्या 'कादम्बरी' से कम है ? निःसार होने के कारण उपेक्ष्य बतलाया है। इसका मुख्य 'धर्मशर्माभ्युदय' क्या शिशुपालवध' से बढ़ कर नही है? कारण रचनाकाठिन्य ही प्रतीत होता है क्योकि अलंकार और क्या ' यशस्तिलकच-पू' दुनियाके समस्त काव्यग्रन्या का मुख्य उद्देश्य विच्छित्ति-चमत्कार द्वारा काव्यको में बेजोड़ नही है? · चन्द्रप्रभचरित' किरातार्जुनीय' से अलंकत करना होता है, जो कि शन्दालंकारमें भी संनिहिन मुन्दर है नथा 'नेमिनिर्वाण' भी बहुत सुन्दर काव्य है, फिर रहता है । वाग्भट कवि जिम प्रकार अर्थालंकारोकी रचनामें इमका मानवा सर्ग नो सर्वथा मौलिक और मनोहर है। मिद्धहस्त थे उसी प्रकार शब्दालंकारोंकी रचनामें भी मिड मैंने, कुछ वर्ष पहले, नातेपोतसे निकलने वाले शान्ति- हस्त थे । यही बात है कि उन्होंने अपने अलंकार प्रन्थमें मिन्धुम महाकवि हरिचन्द्ररचित 'धर्मशर्माभ्युदय' के मरम यमकालंकारका स्वब वर्णन किया है और विशेषता यह है और गम्भीर श्लोकोंका परिचय प्रकाशित कगया था जो कि उसके प्रायः समस्त उदाहरण निजके ही दिये हैं। लगातार कई अंकोम प्रकाशित हुया था। उसके प्रकाशन भगवान् श्रेयामनायके स्तवनमे श्रेयामनाथ और का मात्र यही उद्देश्य था कि ममाज उसकी महनाको समझ गाडका श्लेष देखिये कितना सुंदर है:कर उसके प्रकाशनकी भोर श्राकृष्ठ हो। उमी उद्देश्यको सुवर्णवर्णतिरस्तु भूत्ये, लेकर आज अनेकान्तके पाठकोंके मामने 'नेमिनिर्वाण' श्रेयान विभुवो विननाप्रसृतः। काव्यके कुछ श्लोकोका परिचय रख रहा हूँ। श्राशा है उसमे चैम्नग या सुगतिं ददामा, पाटकोका कुछ मनोरंजन होगा और इस तरह वे उसके विष्णोः मदा नदयति म्म चनः ।। १५ ।।' रचयिता वाग्भट महाकविके वैदयसे कछ परिचित हो सकेंगे। "जिनके शरीर की काति सुवर्णके ममान उज्वल थी, प्रथम सर्गमें भगवान् पापदन्त का स्तवन करते हुए र जो भक्त पुरुषको स्वर्ग अपवर्ग प्रादि उत्तम गतिको देने र महा कविने लिखा है वाले थे, तथा जो स्व-ममानकालिक नारायणके चित्सको भूरिप्रभानिर्जिनपुष्पदन्तः कगयनिन्यकृनपुरपदनः । हमेशा प्रमन्न किया करते थे-हितका उपदेश देकर त्रिकाल वागतपुष्पदन्तःश्रेयांमिना यन्छतु पुष्पदंतः।। अानंदिन किया करते थे-, वे विनतामानाके पुत्र श्रेयास___जिनके दाँतोंने अपनी विशाल प्रभामे पापोको जीत नाथ स्वामी तुम मयकी विभूनि-- केवल जानादि सम्पत्ति-- लिया है, जिनके हाथोकी लम्बाईने पायदन्त' (दिग्गज) के लिये हो--उनके प्रमादसे तुम्हें विभूतिकी प्रानि होवे।" को-उसके शुण्डादण्डको-तिरस्कृत कर दिया है और लोकका प्रकृत अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है, अब जिनकी सेवामें पायदन्त-सूर्यचन्द्रमा-त्रिकाल उपस्थित अप्रत अर्थ देखिये, जो श्लोकगत प्रत्येक शब्दोके प्रायः होते हैं वे पापदन्त भगवान् हम सबको कल्याण प्रदान करें। यर्थक होनेसे स्वयमेव प्रकट हो जाता है। संस्कृत इस श्लोकमें 'पादान्त्ययमक' अलंकार कितना स्पष्ट साहित्यमें विनता सुनका दूसरा अर्थ गरुह प्रसिद्ध है। है ? शब्दालंकारकी अपेक्षा अर्थालंकारका मूल्य अधिक अजैन समाजमें प्रसिद्ध है कि श्रीकृष्ण गरुड पक्षीके अवश्य है परन्तु शब्दालंकारकी रचनामें कविको जितनी ऊपर यान--मवारी किया करते थे तथा जैन समाज में भी कठिनाईका अनुभव करना पड़ता है उतनी कठिनाईका श्रीकृष्णको गरुड़वाहिनी विद्याका उपयोग करने वाला माना अनुभव अर्थालंकारकी रचनामे नहीं करना पड़ता । प्राचीन है। विषणुका अर्य श्रीकृष्ण संस्कृत के ममस्त कोशोंमें प्रसिद्ध साहित्यकारोने अर्थालंकारके साथ शब्दालंकारका भी ग्वब है। इस तरह श्लोकका दुसरा अप्रकृत अर्थ नीचे लिग्वे , 'पुष्पदन्तस्तु दिमागे जिन-भेने गणान्तरे इतिहमः अनुसार हो जाता है-- २ 'पुष्पदन्ती पुष्पवम्तावकोक्रया शशिभास्करी' इति हैमः "जिमके शरीरकी प्रामा सुवर्ण के ममान पीतवर्ण है.
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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