SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ अनेकान्त [वर्ष ४ (जल) भर बाकी रहा; आज ये उसे भी अपहरण निराकरण करते हुए महाकवि कहते हैंकरनेका आगए हैं इमीलिए भयसं क्षीरसागर कंपित स जानुचारी मणिमेदिनीषु स्वपाणिभिः स्वप्रतिविम्बितानि । हा उठा, न कि तरंगोंसे कपित हुआ। पुरः प्रधावत्सुरसूनुबुध्या प्रताडयनाटयति स्म वाल्यं ॥७-७। भगवानके अभिषेक जलको लोग बड़े प्रादरक 'मणिकी भूमिपर अपने घुटनोंके बलपर चलते साथ प्रहण करते हैं, वहां भगवान मुनिसवतनाथका हुए जिनेन्द्र शिशु अपने प्रतिबिम्बोंको दौड़ते हुए देवमेरुपर महाभिषेक हुआ, 'उसकं सुगंधित गंधादकमें शिशु समझकर ताड़ित करते हुए बाल्यभावका देवताओंने खूब म्नान किया।' अभिनय करते थे। वह दृश्य कितना आनंदप्रद नहीं इंद्रने भगवानका जातकर्म किया, पश्चात् नाम- होता होगा, जब त्रिज्ञानधारी भगवानकी ऐसी बालकरण संस्कार किया, यहां नामकी अन्वर्थता बड़े मुलभ क्रडाओंका दर्शन होता था। सुंदर शब्दोंमें बताई गई है उस शैशवका यह वर्णन भी कितना मनोहर हैकरिष्यते मुनिमखिलच सुत्रतं, शनैः समुत्थाय गृहांगणेषु सुरांगनादत्तकरः कुमारः । भविष्यति स्वयमपि सुव्रतो मुनिः । पदानि कुर्वन्किल पंचषाणि पपात तद्वीक्षणदीनचक्षुः ॥७-८॥ विवेचनादिति विभुरभ्यधाग्यसो, _ 'धीरेसे उठकर देषबालाओंकी कगंगुलि पकड़ विडोजसा किल मुनिसुव्रताक्षरैः ॥६-४३॥ वह कुमार गृहांगणमें पांच, छह डग चलकर देवांगनाके स्वयं ममीचीन व्रत संपन्न मुनि (सुव्रत-मुनि) हो रूपदर्शनसे ग्विन्नदृष्टि हो गिर पड़े।' कर मंपूर्ण मुनियोंका व्रतसंपन्न ( मुनि-सुव्रत ) करेंगे जन्मसे अतुल बलस भूषित जिनेन्द्रकुमारकी यह सोचकर इंद्रने मुनिसुव्रत शब्दोंमें उनका नाम- उपर्युक्त स्थिति वास्तवमें इस बातकी द्योतक है कि करण किया। बाल्य अवस्थावश होने वाली बातोंके अपवादरूप शास्त्रोंमें वर्णन है कि भगवानकं अंगुष्ठमें इंद्रमहाराजन भगवान नहीं थे। अमृत-लिप्त कर दिया था, अतएव उसके द्वाग अपनी . जिनेन्द्रभगवान मुनिसुव्रतने जब साम्राज्यपद अभिलाषा शांत होनेपर उन्होंने माताकं दुग्धपानमें ग्रहण किया, तब उनके दर्शनोंका आने वाले नरेशोंका अपनी बुद्धि नहीं की । इस प्रसंगमें कवि कहता है- महान समुदाय हो जाता था। इसी बातको कहाकवि जिनार्भकस्येन्द्रिय-तृप्तिहेतुः करे बभूवामृतमित्यचित्रम्। बताते हैंचित्रं पुनः स्वार्थसुखैकहेतुः तचामृतं तस्य करे यदासीत्॥७-३॥ भक्तु जिनेन्द्र प्रजा नृपाणां चमूपदोद्ध तपरागपाल्या। जिन-शिशुकी इंद्रिय-तृप्तिके लिए हेतुभूत अमृत विहाय चेतांसि पलायमानकपोतलेश्याकृतिरन्वकारि ॥७-२६ हाथमें था, यह आश्चर्यकी बात नहीं है; आश्चर्य तो जिनेन्द्रकी आराधना करने लिए जानेवाले इसमें है कि उनके हाथमें अपने सुखका एक मात्र नरेशोंको सेनाके पदाघातसे उड़ती हुई धूलिगशि कारण अमृत-मोक्ष भी था। ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों अंतः करण छोड़ कर कोई यह सोचता होगा कि निसर्गज अवधिज्ञान जाती हुई कपोत लेश्या ही हो।' समन्वित होने के कारण बाल्यकालमें भगवानमें बाल भगवान मुनिसुव्रत के राज्यमें किसे कष्ट हो सकता सुलभ क्रीड़ाओंका अभाव होगा, ऐसी कल्पनाका है, १ सचेतन वस्तुकी अनुकूलताकी बाततोक्या, अचे
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy