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________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य १७५ तन पदार्थ तक जहां अनुकूल वृत्ति धारण करते थे। इस प्रसंगपर एक शंका यह उत्पन्न होती है, कि इस विषयमें देखिए कवि श्री महरास जी क्या आहारकं अनंतर भगवान मुनिसुव्रतनाथने कैसे मधुरवाणीसे यथायोग्य प्राशर्वाद दिया ? क्यों कि जिनेऽवनी रपति सागरान्तां नय-प्रताप-दूय-दीर्घ-नेत्रे। यह प्रसिद्ध है कि दीक्षा लेनके अनंतर जिनेन्द्र 'वाचं कस्यापि नासीदपमृत्युरीतिः पीड़ा च नाल्पापि बभूव लोके ॥२८-७ यम' हाने हैं. इसीसे उनका स्तवन 'महामौनी' __'नय और प्रताप रूप दा विशाल नेत्रधारी जिनेन्द्र शब्दस किया जाता है। जो हो यह विषय ध्यान देने के द्वारा सागरपर्यन्त विस्तृत पृथ्वीक शासन कग्नपर योग्य है अवश्य । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य जगत्में किमीका न ता अकाल मरण होता था, न है कि भगवान तपोवनमें 'गजेन्द्रगति' से गए । आज इति (अतिवृष्टिचादिका उपद्रव) और न किसीको थोड़ा काई लोग साधुओंके गमनमें मंदगतिक स्थानमें सा कष्ट ही होने पाता था। उनकी द्रतगति (Quick March) को उचित ___ वास्तवमें सशासनक लिए यदि नीति और बताते हैं, उन्हें इस प्रकरणको ध्यानमें लाना चाहिये । प्रतापका सामंजस्य है, तब मर्वत्र शांति एवं समृद्धि प्रसंगवश वर्षाका वर्णन करते हुए महाकवि विचरण करती हुई नजर आयगी। मनोहर कल्पनाको इन शब्दोंमें बताते हैंबहुत समय तक नीतिपूर्ण शासन करने के अनतर नीरंध्रमभ्रपटक्षं पिहिताखिलघु भेजेतरां विधृतदीर्घतरां बुधारम् । एक बार एक गजगजको धर्मधारण में तत्पर देखकर देव्याः खितरुपरि संवितदीर्घमुक्ताभगवान के चित्तमें वैगग्यकी ज्योति जाग उठी। उस मासं विशालमिव धातृकृत वितानम् ॥ १.१६॥ समय उन्होंने अपने माता-पिताको समझाकर अपने संपर्ण आकाशका ढांकने वाला निविड़ मेघमंडल, विजय नामक पुत्रके कंधेपर साम्राज्यका भार रखकर जिसस माटी २ जलकी धाग निकल रही थी, एमा दीक्षा ली ('प्राज्यं नियोज्य तनये विजये स्वराज्य')। शोभायमान हो रहा था, मानो पृथ्वीदेवीके ऊपर दीक्षा लेनेके बाद भगवानने गजगृहक नरेश विधानान विशाल चंदोवा तान दिया हो, जिसमें महाराज वृषभसेनके यहाँ आहार ग्रहण किया, उस लम्बी और बड़ी मुक्तामालाएँ टँगी हुई हैं। प्रसंगमें महाकवि वर्णन करते हुए कहने हैं कैसी विलक्षण कल्पना है ! श्राकाशको ढाँकने मुनिपरिवृदो निर्वयैवं तनुस्थितिमुत्तमा, वाले मंघमंडलको तो चंदावा बनाया, और मांटी मृदुमधुरया वाचा शास्यं विधाय यथोचितं । धारवाली जलगशिको मुक्ताको मालिकाएँ ! मुनिसमुदयैरतिवातैश्च पौरनृणामनुव्रजितचरमः इसी वर्षाके विषयमें आगे कवि कहता हैपुण्यारण्यं गजेन्द्रगतिययौ ॥८-२३॥ रेजुः प्रसृत्य जलधि परितोप्यशेष मुनीन्द्रने उत्तम आहारको ग्रहण करके सुमधुर मेषा मुहुमुहुरभिप्रसृताभ्रभागाः । वाणीसे आशीर्वाद देकर मुनिसमुदाय एवं पुरवा प्रादानवर्षणमिषात पयसां पयोधि सियोंके नेत्र समूह के द्वारा अनुगत गजेन्द्रके समान व्योमापि मान्त व संशयिताशयेन ॥10॥ मंद गतिसे तपोवनमें प्रवेश किया। 'बारबार जल लानके लिए जलधिकी मोर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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