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________________ भनेकान्त [ वर्ष । विस्तृत रूपसे गए हुए और वर्षणके बहानेसे पुनः इत्थं सुदुःसहतुषारतुषावपातैः पुनः संपूर्ण दिशाओंको व्याप्त करते हुए मेघ ऐसे निर्दग्धनीरजकुले समयेऽपि तस्मिन् । मालूम होते थे, मानी शंकाकुल हो बार बार आकाश म्लानानि नैव कमलानि महानुभावो और समुद्रको नापते थे'। मेघोंका समुद्रस जल लाना यस्याः स्थितः स भगवान् सरितः प्रतीरे ॥8-३४ और आकाशमें फैलकर वर्षा करना साधारण जगत्के इस प्रकार असह्य हिमके पतनस नष्ट हुए कमलोंलिए कोई भी चमत्कृतिपूर्ण बात नहीं मालूम पड़ती; से युक्त उस शीत कालमें जिस सरोवर के तटपर भगवान् किन्तु महाकवि अपनी अलौकिक दृष्टिम मेघके द्वारा विराजमान थे वहां के कमल म्लान नहीं हुए थे। इसस भगवानकी लोकोत्तर तपश्चर्याका भाव विदित होता है। समुद्र एवं भाकाशकी विशालताको नापता है, और यह ___ जब भगवानकी अनुपम एवं निश्चल तपश्चर्या देखता है, इस नापमें बड़ा कौन और छोटा कौन है ? हो रही थी, तब उनके तेज एवं तपश्चर्या के प्रतापस हिमऋतुकं विषयमें कवि महादय क्या ही अनूठी तपोवनकं संपूर्ण वृक्ष पुष्प-फलादिसे सुशोभित होगए कल्पना करते हैं थे। इस विषयमें कविकल्पना करते हैं, कि अपनी सत्यं तुबारपटौः शमिनो न रुद्धाः सिद्धः पुनः परिचयाय हिमतु लक्ष्म्या। शाग्वारूपी हाथों में पुष्प-फलादि ग्रहणकर वृक्ष भगछन्ना दुकूलवमनैर्नु पटीरपंक. वानकी पूजा ही करते थे, ऐसा प्रतीत होता है । लिप्ता नु मौक्तिकगुणैर्यदि भूषिता नु ॥ १-३३॥ जब भगवानका कैवल्यकी प्राप्ति हुई, तब उनकी 'यह बात ठीक है कि ग्वङ्गासनम विराजमान धर्मोपदंश देनकी दिव्य सभा-समवशरणकी रचना मु नगण हिमपटलस आवृत नहीं हैं किन्तु कहीं हुई, उसके विषयमें कविवर कहते हैं :मोक्षलक्ष्मीस परिचय प्राप्तिक निमित्त महीन वखोंस स्त्रीबालवृद्धनिवहोपि सुखं सभां ताम् आच्छादित ता नहीं हैं ? अथवा कहीं श्रीचंदनसं अंतमुहूर्तसमयांतरतः प्रयाति । लिप्तदेह तो नहीं है ? अथवा मुक्तामालाओं द्वारा नियोति च प्रभुमहात्मतयाश्रितानां भूषत तो नहीं है ? निद्रा-मृति-प्रम्पव-शोक-कजादयो न ॥१०-४५ यहाँ क व हिमाच्छादित मुनियोंके देहको मुक्ति- उस समवशरणमें स्त्री, ब लक, वृद्धजनोंका समुलक्ष्मीसं मम्मेलनके लिए महीनवस्त्रसे आच्छादित दाय मानंद अंतर्मुहूर्तमें प्राता जाता था । जिनेन्द्रदेव या श्रीचंदनस लिप्तपनकी या मुक्ताओंस सुशोभित- के माहात्म्यवश आश्रित व्यक्तयोंको निद्रा, मृत्यु, पनेकी कल्पना करते हैं। हिमऋतुमें शरीरका हिमसं प्रसव, शोक, रांगादि नहीं होते थे आच्छादित होना बहिष्टि प्राणियोंकी अपेक्षा भीषण ग्रंथकारनं यह भी बतलाया है कि तत्वापदेशक है, किन्तु ब्रह्मदृष्टिवाले तपस्वियोंकी दृष्टि में वह आनंद अनन्तर भगवानकं विहारकी जब वेला आई तब एवं पवित्र भावोंको प्रोत्साहन प्रदान करनेवाली - *श्रीमन्तमेनमखिलाचिंतमात्मधाम सामग्री है। प्राप्नं स्वयं मपदि तद्वनभूजषण्डम् । ऐसी भीषण सर्दीमें भी भगवान मुनिसुव्रत शाखाकरेषु धृतपुष्पफलप्रतानम् तपश्चर्यास विमुख नहीं थे श्रासीदिवार्चयितुमुद्यतमादरेण ॥ १०-१॥
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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