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प्राग्वाट जातिका निकास
(ले०-श्री अगरचन्द नाहटा)
श्रद्धय प्रोझा जीने अपने "विमलप्रबन्ध और विमल" हटवा च गृहं जम मुल्ये विचममोहरम।" नामक लेख में विमलप्रबन्धकी ममालोचना करते हुए सम्बत् १०७ प्राग्वाट वंशके बारेमें निम्न शन्द लिम्व है:
-प्राचीन अनसंख-संग्रह ०४२७ "श्रीमाल के पूर्व में उनके निवाम करने के कारण उनका (२) सं० १२०१ जपेषशुक्ला ५ की (मं० विमल के. प्राग्वाट (पोरवाड़) कहलाना, ये सारी बातें कल्पिन " कुटम्बकी) प्रशस्ति"प्राग्वाट तो मेवाड़ के एक विभागका पगना नाम था।
"श्रीश्रीमाखकुलोम्यनिर्मखतरप्राग्वाटवंशाम्बरे । जैमाकि शिलालेखादिम पाया जाता है। वहाँक निवासी भाजच्छीतकरोपमो गुणनिधिः श्रीनिकाल्यो गृही।" भिन्न भिन्न जगहोंमें जाकर रहे, जहाँ वे अपने मूल निवाम
-भगिरि-शेखसंदोह स्थान के कारण 'प्राग्याट' कहलात रहे ।'
(३) सं० १२२३ लि० हरिभद्रमूरिकृत चन्द्रप्रभ अर्थात् प्राग्याट कहलानेका कारण श्रीमाल के पूर्व स्वामी चरित्रमेंनिवाम करनेका न होकर मेवाडके प्राग्वाट प्रदेशम मूल "सिरिमालपुरुभवपोल्याइवमे मु-बाणिमो मगुणो । निवास स्थान होता है।
मुत्तामणिम्वनिक्षम अभिहाणो ठक्कुरो मामि ॥
प्रहपपटी होउ मिरीदेवी कहिय भाविच (म्भु) दी। पर नीचे लिम्बे ऐतिहामिक प्रमाण-पंचकसे उनका मत
सो सिरिमालपुरानो पत्तो गंभूप नयरीए ॥ संशोधनीय प्रतीत होता है:
-पाटण-नभंडार-सूखी पृ. २५३ (१) सीगेही राज्यके कायद्रा (कासहद) प्रामके जैन
(४) ० १२२६ फाल्गुण बदि ३ बीजोल्याके शिला. मंदिरके श्रामपामकी देवकुलिकामिमे एकके द्वार पर यह न लेग्व उत्कीर्ण है
"निर्गतो प्रवरो वंशो वन्दः ममाश्रितः । "श्रीभिल्लमालनिर्यातः प्राग्वाट: वणिजां वरः।
श्रीमानपत्तने स्थान स्थापितः शनमन्युना ॥३०॥ श्रीपतिरिव लक्ष्मीयुग्गोलच्छीराजपूजितः ।
श्रीमानशेखप्रवरावचनपूर्वोत्तरः पवमुरुः सुकृतः । भाकरो गुणरत्नाना, बन्धुपादिवाकरः ।
प्राग्वाटवंशोस्ति बभूवनस्मिन्मुक्नोपमा वैषणाभिधान: जज्जुकस्तस्यपुत्रः स्यात् नम्मरामौ नतोऽपरी।
॥३ ॥ मम्जुसुतगुणाल्येन वामनेन भवाडयम् ।
(५) म १२३६ लि. नेमिचन्द्र मृरिकन महावीर नारित्र • प्र. 'सुधा' वर्ष २ खंड सं० १ श्रावण ३०६ तम की लेग्वनपशस्ति में'राजपूतानेका इतिहास' की पहिली जिल्लमें भी उन्होंने इसी "प्राग्यो बाटो जलधिसुनया कारितः क्रीडनाय । का पुनः समर्थन किया है।
तबाम्नेवप्रथमपुरुषो निमिनोध्यांनोः ।