________________
३६०
तत्संतानप्रभव पुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोयं । प्राग्वाटाल्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥१॥ - पाटणभंडार- सूची पृ० २८६ उपर्युक्त प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि पोरवाड़ोंका उद्गम स्थान श्रीमाल ही है विमलप्रबन्धका उल्लेख कल्पित नहीं होकर पूर्वपरम्परा श्राधारसे लिम्बा ज्ञात होता है । अत: मुनि जयन्तविजयजीने नागरी प्रचारिणी पत्रिका भा० १८ श्र० २ पृ० २३६ में श्रोझाजीके कथनकी संगति बैठाने के लिए "मेठ नीनाकी माता श्री श्रीमाल ज्ञातिकी और पिता पोरवाड़ गातिके थे" लिखकर जो कल्पना की वह भी अनावश्यक प्रतीत होती है। मुनिश्रीने लिखा है कि 'श्री श्रीमाल कुलोत्थ'
एक प्रश्न
C
[ श्री 'भगवत' जैन ]
अनेकान्त
[ वर्ष ४
है इसकी जगह यदि 'श्री श्रीमालपुरोत्थ' होता तो इसका अर्थ ठीक प्रकारसे संगत हो सकता था । श्रर्थात् भिल्लमाल नगर पोरवाड़ जाति उत्पन्न हुई ।" और उपर्युक्त प्रमाणों में चन्द्रप्रभचरित्रकी प्रशस्तिमें, जो कि उसी विमल के वंशकी है, "मिरिमालपुरब्भव" स्पष्ट पाठ है । अतः अन्य कल्पनाकी कोई गुंजाइश ही नहीं विदित होती ।
इस सम्बन्धमें मुनि जिनविजयजी अपने पत्रमें लिखते हैं कि मेरे विचार प्राग्वाट वर्तमान सीरोही राज्यका पूर्वभाग है जो आबू लेकर उत्तरमें नाडोल तक चला गया है । श्रीमालके परगनेसे यह ठीक पूर्व में है, इसीलिए इसे श्रीमाल बालने प्राग्वाट कहकर उल्लिखित किया है ।
क्यों दुनिया दुखमं डरती है ?
दुखमें ऐसी क्या पीड़ा है, जो उसकी दृढता हरती है ? हैं कौन सगे, हैं कौन ग़ैर, कितने, क्या हाथ बँटाते हैं ? सुम्बमें तो सब अपने ही हैं, दुखमं पहिचाने जाते हैं ! 'अपने' - 'पर' की यह बात सदा, दुखमे ही गले उतरती है !
क्यों दुनिया दुखसे डरती है ?
दुख तो ऐसा है महा मंत्र, जो ला देता है सीध. पन ! मारे विकार, सारं विगंध तज प्रारणी करता प्रभु- सुमिग्न हर माँस नाम प्रभुका लेती, भूल भी नहीं विसरती है ! क्यों दुनिया दुम्से डरती है ?
दुनयात्री मारे बड़े ऐव, दुखियाको नहीं मनाते है । सुम्बमें डूबे इन्सानों का बेशक हैवान बनाते हैं ! दुख सिखलाता है मानवता, जां हत दुनिया का करती है ! क्यों दुनिया दुम्बसे डरती है ?
पतझड़ के पीछे है वसन्त, रजनीके बाद संग है ! यह अटल नियम है— उद्यमके उपरान्त सदैव प्रसंग है ! दुख जानेपर सुख आएगा, सुख-दुख दोनों की धरती है ! क्यों दुनिया दुखसं डरती है ?