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________________ २३८ अनेकान्त [वर्षे४ मणिकाने ऊपर में और भी प्रकाश डाल कर उमं पड़ा-उसके अन्दर का विनाएँ मरल मनोरंजक मनाहर बना डाला है। इस प्रकाशमै 'जैनीनानि' निर्विवाद उपयोगी जान पड़ी कि जो प्रायः पत्रक्या है यह बान हर एक समझदारकी ममझ अच्छा पत्रिकाओम कम मिलता है। अक्मर पाण्डित्यक तरह समझ मकंगी, मंतुष्ट हो जायगी, और पंडितजनों आवेशमे निरर्थक, शब्दाडम्बरका रचना ही देवी के पनि मम यह शिकायत न रहेगा कि- जाती है। वांजके नग्न जैन नामिलभापाका जैन वाइज की हुजनाम कायल ना होगए हम । माहित्य, इलोग सम्बन्धी व चन्द्रगुप्त मम्बन्धी लग्न काई जवाब शाफी पर उनन बन न आया॥ भी मगहनीय हैं। श्राहिमाका विवंचन भी तात्विक कई वर्षों न जबम मैन गीता पढ़ी या समझी है, है........... आपके अंकको देखकर मुझे विशंप मरे मन में "गीनाकं बीज जिनागमम है" इम मममन हप ना यह होता है कि आपका समाज वेनाम्बर्ग और "वे बीज इकट्ठे होकर देग्वनको मिल जाय" समाज की तरह विद्या विवंचन विचारमं साधुवर्गका इस इच्छाने घर कर ग्ग्या है। तत्त्वार्थमत्रक बीजांकी मुग्वापक्षी नहीं है । स्वयं विचारशील है। और खोज" देग्यकर मग यह इच्छा भी मफल हानकी गाहन्थ्यधर्मके व्यवहार पर एवं धार्मिक सिद्धान्तो आशा कूदने लगी है। भगवान भला करे भाई पर खुद साच समझ मकना है, हांका नहीं जा सकता। परमानन्द या उन जैमा कोई सरस्वतीका लाल इधर यद्यपि अनकान्तके नामक अागे मांप्रदायिकता टहर भी मुंह करले-गीताकं ईश्वरमप्रिय तत्ववादको नहीं सकती। और आपकं लम्बोम जैनसम्प्रदायकी छादार शेष प्रायः सभी विपयोंकी सामग्री जिनागम झलक पानी । तो भी मै ग्वीकार वसंगा कि लग्यो से इक्ट्ठी करके उमं गीता जैसे रूपमे खड़ी करदे । का दृष्टिकोण बहुत उदार व विशाल है यदि आपके सब अंक ऐम ही माहित्यिक रचनाओं अंषित होने सचमुच उस दिन मै फल कर कुप्पा हो जाऊँगा।" १३ बा० कृष्णलालजी जैन, जोधपुर हैं और यह विशेषांक ही एक नमूनामात्र न हो तो मैं "मम्पादकजी महादय मुझे अनकान्तको देग्य नहीं सकता। आपको पत्रके सम्पादन के लिए बधाई दिये बगैर रह कर उसकी चमक दमकम कहीं ज्यादा उमके अन्दरके टाइटिलपंजपर जो चित्र दिया गया है वह विषय व उनपरका विवचन प्रिय व सुन्दर मालूम वाकई बहुत सुन्दर और मौलिक, और सैद्धान्तिक है । सूचना वीरसेवामन्दिरको सहायता सम्पादकजीके अचानक कलकत्ता चले जाने और उधर कई दिन लग जानके कारण 'समन्तभद्र श्रीमती माताजी बा० ट्राटेलालजी जैन रईस विचारमाला' का नीमग लेख तथा 'कविगजमल कलकत्ताने 'वारंवामन्दिर' को उसकी लायनेगमें कुछ और राजा भारमल' लग्वका उत्तरभाग इस अंकमे शाखाक मंगानक लिय २०० रु० का स मारास शास्त्रोक मंगानके लिये २००० की सहायता प्रदान नहीं दिया जा सका। पाठक महानुभाव उनके लिये की है । इसक लिय श्राम नाव लिये की है। इसके लिय श्रीमनीजी विशेप धन्यवाद की अगले अककी प्रतीक्षा करें। पात्र हैं। अधिष्ठाता, वीरसवामन्दिर प्रकाशक 'अनेकान्न' सरसावा जि० सहारनपुर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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