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________________ किरण १] आत्म-योध ६१ यह है अन्तरात्माकी पुकार ! आत्म-विश्वासका भूल रहा है कि - 'वह विद्या कोई अलग वस्तु नहीं ।' खुला रूप !!! X बल्कि इसकी अपनी बीज है। केवल 'अनसमझ के अन्तरने उसे 'पर' बना दिया है। चाहे तो तत्काल उसे पा सकता है, है ही उसकी इस लिए ।' फिर बोले- 'तो उस विद्याकी ही केवल इच्छा रखते हो— सूर्यमित्र ? जिसे वह 'महान' समझकर माँग रहे हैं, गुरुदेव के लिए वह साधारण से अधिक नहीं । उसके लिये 'केवल' शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं। इस उदार रहस्य ने उन्हें चौंका दिया | जागरित लालसामें बल संचार हुआ । विचार आया- 'होनहो ऋषिके पास इससे भी मूल्यवान् और भी विद्याएँ हैं। तभी यह बात है । लेकिन एक साथ ज्यादहके लिए मुँह फैलाना शायद महाराजने 'धर्मवृद्धि' दी । कहा- 'आत्मबन्धु ! ठीक न रहेगा। मुमकिन है - तपस्वी जी नाराज अँगूठी मिल गई, अब क्या चिन्ता है ? ' 1 'महाराज ! ..." सूर्यमित्रने कहना चाहा, लेकिन कह न सके । सोचने लगे किन शब्दों में कहा जाए ? बात की शुरूआत कहाँ से हो ? सवाल 'माँगने' का है । 'माँगना' वह काम है जो दुनियाके सारे कामोंसे मुश्किल - कठिन होता है । होजाएँ । 'राजा, योगी, अग्नि, जल इनकी उल्टी गीति । ' - मशहूर ही तो है । फिर अपनका इतनेसे फिलहाल काम चल सकता है। बाक़ी फिर । अधिक से अधिक स्वर में मिठास लानेका प्रयत्न करते हुए सूर्यमित्रने उत्तर दिया- 'हाँ ! महाराज ! वह विद्या मुझे मिलनी चाहिए। बड़ी कृपा होगी, जन्म एहसान मानूँ गा ।' क्षणोंके अन्तराल के बाद - महाराज बोले'कहो सूर्यमित्र ! क्या कहना चाहते हो ?' 'विद्या देने में तो मुझे उका नहीं । लेकिन मुश्किल तो तुम्हारे लिए यह है कि विद्या, बिना मेरा जैसा वेष धारण किये आती ही नहीं । सोचो, इसकेलिए मैं क्या कर सकता हूँ ?' सूर्यमित्रका मन खुलसा गया । महाराजके वचन - माधुर्यमें उन्हें वह आत्मीयता मिली, जो अब तक उनसे दूर थी। आडम्बर-रहित शब्दों में, चरणोंमें सिर नवाते हुए बोले- 'योगीश्वर ! हमें वह विद्या दो, जिसके द्वारा तुम अन्तरकी बात जान लेते हो, खोई वस्तुका भेद समझ पाते हो ।' - महाराजने गंभीर स्वरमें, वस्तुस्थितिके साथ साथ अपनी विवशता सामने रक्खी। सूर्यमित्र उत्सुक नेत्रोंसे ताकते रहे, बोले कुछ नहीं । सम्भव है, बोलने के लिए उन्हें शब्द ही न मिले हों - मनमाफिक । X X X [ ४ ] बग़ैर इस बातका विचार किए कि हम राज्यमान्य पुरोहित हैं । पद-मर्यादा भी कोई चीज है । जिन्हें सिर नवा रहे हैं, वह अपने मान्य-संन्यासी नहीं, वरन् दिगम्बरत्वकं हामी, एक महर्षि हैं।सूर्यमित्रने विनयपूर्वक तपोधन सुधर्माचार्यको प्रणाम किया । आज उनके हृदय में संकोच नहीं है । घबराहट भी नहीं, कि कोई देग्बलेगा। मुँहपर सन्तोष है, आँखों में विनय | महाराज मुस्कराये । शायद सोचने लगे - 'कितना भोला है - यह मानव ! विद्या-लोभने इसे पराजित कर रखा है, चुप उठकर चले आए। X X X X
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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