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अनेकान्त
[वर्ष ४
पर सूर्यमित्रने समझा उस बाधा । बोले-घबपर आकर मूर्यमित्रने मशवरा किया। विद्याकी राओ नहीं । मैं संन्यासी जरूर बन रहा हूँ, लेकिन महत्ता मनमें घुल जो चुकी थी। सहज ही वह विद्या यह मत समझो, कि तुम्हें या बच्चोंको भूल जाऊँगा। लोभको छोड़ कैमे मकने थे ?
मुझे किसीकी चिन्ता न रहेगी। नहीं, सब तरह ऐमा ___ कहने लगे-'दिगम्बर साधु बनकर भी अगर ही रहूँगा। सिर्फ़ दिगम्बर-साधुका रूप रखना होगा। वह विद्या मुझे मिलती है, तो मेरा ग्वयाल है-इतने विद्या जो बिना वैसा किए नहीं आती। मजबूरी है में भी मॅहगी नहीं। दिगम्बर साधु बनना अपनी न? -इसी लिए !' मान्यताके खिलाफ जरूर है. लेकिन मैं जो बन रहा तो कब तक लौट सकोगे ?'-स्त्रीने हारकर, हूँ वह भक्तके रूपमें नहीं. वग्न विद्याप्राप्तिकं, साधन श्राधीनस्थ-स्वग्में पूछा। के तरीकेपर । वह भी हमेशा-हमेशाके लिए नहीं, सिर्फ 'वापस ? विद्या मिली नहीं कि लौटे नहीं । साधु विद्याको 'अपनी' बना लेने तक ही। अब विचार बननेका शौक थोड़ा है ?-बहुत लगा-महीना करो क्या हर्ज है ? 'मेग तो यही मत है कि दिगम्बर भर ।'-और वह जैसे पिण्ड छुड़ाकर भागे ! माधु बनना उनना बुग नहीं, जितनी गहरी भूल इम
xxxx सुयोगको छोड़ देनस होगी।
दूसरा दिन है।___ ब्राह्मणपरिवारकं आगे विषम समस्या है। घुटी सूर्यमित्र दिगम्बर-साधुके भव्य बन्दनीय वेषमें, के लाभ जहाँ पीनेके लिये प्रेरित करते हैं, बदजायका तपोनिधि सधर्माचार्यक समीप विराजे हैं । भक्तउतना ही रोक देनेकी हिम्मत दिखाता है। बात गण आत हैं, श्रद्धा-पूर्वक अभिवादनकर, पुण्यकुछ देर 'नाही नुकर' की घाटीमें पड़ी रही। लेकिन लाभ लेते हैं, और चले जाते हैं। मूर्यमित्र की 'लगन' में काफी मजबूती थी, बल था। अवसर पाकर सूर्यमित्र बोले-'प्रभो । माज्ञा आखिर मब लोगोंको म्वीकारोक्ति द्वारा उनका मार्ग नकल मैंने साधुता स्वीकार करली । अब मुझे विद्या अबाधित करना ही पड़ा।
मिल जानी चाहिए।' आगे बढ़े !
'जरूर !'-वात्सल्यमयी स्वरमें महागज ने खीने श्राकर राम्ना गेक लिया। अँधे हुए गलेसे उत्तर दिया-'लेकिन जरा धैर्यसे काम ला । मेरी जैसे बड़ी देर रो लेनेके बाद अब बोलनेका मौका तरह क्रियाएँ कगे, आत्मविश्वास रखो; और मिला हो, बोली-'कहाँ चले ? बचोंकी, मेरी, किमी शाख-अध्ययनमें दिन बिताओ । अवश्य तुम्हें की कुछ चिंता नहीं, विद्या ही सब कुछ तुम्हारी बन विद्याएँ प्राप्त होंगी। एक वही नहीं, और भी रही है ? 'संन्यासी बनोगे ? मैं कैसे घरमें रह साथ-साथ ।' सकूँगी ?'
__ सूर्यमित्रने बातें सुनी ही नहीं, हृदयमें धरलीं। वह रोदी !
तदनुकूल आचरण भी किया-अटूट लगन, और उसे जैमे रोना जरूरी था।
श्रद्धाके साथ!