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________________ किरण १] अहिंसा-सत्व कई दिन पाए और चले गए। आज कितना दीन बन रहा है। क्या नहीं है-इसके हृदयमें कुछ ज्ञान-संचार होने लगा। लगने पास ? लेकिन सांसारिकता इसका पीछा छोड़े तब ?' लगा जैसे आँस्योंके भागेसे परदासा उठता जा । इसी समय गुरुदेव बोले-'कहो सूर्यमित्र ! अब विद्याकी लालसा बाकी है क्या? 'चाहिये ?' __ पूछने लगे-'स्वामी । शास्त्रस्वाध्यायमें सूर्यमित्रने तत्काल उत्तर दिया-'नहीं, प्रभो ! आनन्द तो खूब आता है, पर अभी वह विद्या मुझे अब मुझे विद्याकी जरूरत नहीं। अब मुझे उससे नहीं मिल सकी।' कहीं मूल्यवान वस्तु-प्रात्मबाध मिल चुका है। ___ 'मिलेगी ! जिस दिन विद्याकी लालमा मनसे उस पा लेनेपर किसीकी इच्छा नहीं रहनी !' । दूर हो जायेगी, उसी दिन विद्या तुम्हारे चरणोंमें xxx लाटेगी।'-महागजने गंभीर वाणीमे व्यक्त किया। सूर्यमित्र !!!सूर्यमित्रका मन धुलता जारहा है। वासनाएँ आज महान तपम्वी ही नहीं, महान् प्राचार्य क्षीण होरही हैं। ज्ञान जागरित होरहा है। हैं। अनेकों विद्याएँ उन्हें सिद्ध हैं। लेकिन वे उन्हें बहुन दिन बीत गए। जानते तक नहीं। उन्हें उनसे क्या प्रयोजन ? क्या शास्त्र अध्ययन करते २ वह सोचने लगे-एक वास्ता ? अब उन्हें वह वस्तु मिल चुकी है जो अत्यंत दिन !.."श्रो । विद्याके लोभमें मैंने इतने दिन दुर्लभ, अमूल्य और महामौख्यप्रदाता है, विद्याओं निकाल दिये । कपूर देकर कंकड़ लेना चाहता था ? की उसके आगे क्या वकअत ? वह वस्तु हैबन-मूर्खता ! महान ऐश्वर्यका म्वामी यह प्रात्मा; आत्म-बांध ॥ अहिंसा-तत्त्व ( लेखक-श्री ब्र० शीतलप्रसाद ) [ इस लेखके लेखक ब्र० शीतलप्रसाद जी अर्सेसे बीमार हैं-कम्पवातसे पीड़ित हैं, फिर भी आपने अनेकान्तके विशेषाङ्कके लिए यह छोटासा सुन्दर तथा उपयोगी लेग्य लिखकर भेजनेकी कृपा की है, इसके लिए मैं आपका बहत आभारी हैं। कामकी-कर्तव्य पालनकी लगन इसको कहते हैं। और यह है अनुकरणीय सेवाभाव !! -सम्पादक] श्री समन्तभद्राचार्यने म्वरचित स्वयंभूस्तोत्रमें । र वैसे ही अहिंसातत्त्वमें कोई राग-द्वेष-मोह-भाव नहीं कहा है कि अहिंमा परमब्रह्मस्वरूप है। जैसे परम- हैन प्रारम्भी हिंसा है। जहाँ मन-वचन-कायकी है, न द्रव्यहिंसा है, न भावहिंसा है, न संकल्पी हिंसा ब्रह्म परमात्मामें कोई विकार नहीं है, गगद्वेष नहीं है, गगादि क्रिया न होकर आत्मा अपने आत्मस्वरूपमें इच्छा-मोह नहीं है, न कोई हिंसात्मक भाव है; स्थित रहता है वहीं अहिंसातत्त्व है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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