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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ जैन तीर्थकरोंने ऐसी अहिंसाको ही आदर्श हिंसाका त्याग ता कर देता है, अर्थात् हिंसाके अभिअहिंसा कहा है। इसमें जो कुछ भी कमो है वह हिंसा प्रायसे हिंसात्मक कार्य नहीं करता। परन्तु प्रारम्भी में गर्भित है । रागद्वेष-मोहादि विभावोंसे आत्माके हिंसाको भी हिंसा ही समझना चाहिये, क्योंकि उस वीतरागतादि भाव प्राणोंकी हिंसा होती है । द्रव्य- में कारण भावहिंसामयी कषायभाव है, इसलिए प्राणोंके पातको द्रव्यहिंसा कहते हैं। परन्तु वह भाव- जितना भी शक्य हो प्रारम्भी हिंसासे बचना हिंसाके बिना हिंसा नाम नहीं पाती है। जैसे कोई चाहिये । प्रारम्भी हिंसाके तीन भेद हैं-उद्योगी, साधु भूमि देख कर चलता है, उसके परिणामोंमें गृहारम्भी और विरोधी । इनमेंसे यदि कोई प्रकारकी जीवरक्षाका भाव है-जीवहिंसाका भाव नहीं है हिंसा गृहस्थीस बन जाय तो वह उसे हिंसा ही ऐसी दशामें यदि अचानक किसी क्षुद्रजन्तुका घात समझे । हिसाको अहिंसा धर्म मानना मिथ्या होगा । हाथ या पग द्वारा हो जावे, तो वह मुनि उस द्रव्य- जितनी कम हिंसास काम होसके उतना उद्यम करना हिंसाका भागी न होगा। क्योंकि उसके भावमें हिंसा गृहस्थका कर्तव्य है। हिंसात्मक युद्धोंकी अपेक्षा यदि नहीं है, इसलिए वास्तवमें भावहिंसा ही हिंसा है। शान्तिमयी प्रयोगोंसे परस्परके मनमुटाव मिट सकें द्रव्यहिंसा भावहिंसाका प्रकट कार्य है, इसलिये द्रव्य- तो अहिंसा धर्मके माननेवाले गृहस्थका ऐसा ही कर्तहिंसाको भी हिंसा कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जैन व्य ठीक होगा। परस्पर विरोध होनेपर अन्ध होकर तीर्थकरोंने अहिंसाको ही धर्म माना है । जगतमें एक दूसरेको निर्दयतास हानि पहुँचाना घोर हिंसा व्यवहार करते हुए व्यवहारी जीवोंसे सर्वथा अहिंसा है। मानवीय कर्तव्यसे बाहर है। का पालन हो नहीं सकता । तब जितने अंशमें यदि कोई धार्मिक कार्यके लिये प्रारम्भ करता है अहिंसातत्वमें कमी रहेगी, उतने अंशमें वे हिंमाके से और उसमें हिसा होती है, तो भी उस हिंसाको भागी होंगे। अगर एक साधु भी हो, और वह शुभ धर्म नहीं कहा जा सकता | चंकि प्रारम्भी हिंसाके गग-वश शुभ क्रिया करता हो, तो उस समय अहिंसा मुकाबले में धार्मिक लाभ अधिक होगा, इस लिये के तत्वसे बाहर है क्योंकि शुभगगमें मंद कषायका उपचारसे उस प्रारम्भी हिंसाको भी धर्ममें गर्भित मल है। जितना कषायका मल है उतना ही हिंसाका कर देते हैं । प्रयोजन यह है कि अहिंमा सदा दोष है । शुद्ध भावमें कषायरहित रमण करना अहिंसा ही रहेगी, और वह वीतरागभावमय है या अहिंसा होगा। गृहस्थोंका भी यही आदर्श होना चाहिये परब्रह्मस्वरूप है। इसमें जितने अंशों में जो कुछ कमी है वह सब उतने अंशोंमें हिंसा है । जैन सिद्धान्तका वीतरागभावको ही अहिंमा मानना चाहिये । यही प्राशय है । इस ही पर निश्चय लाकर हरएक जब शुभ राग भी हिंसा है तब अशुभ राग व्यक्तिको अहिंसाके शिवरपर पहुँचनेका उद्यम से किया हुआ गृहस्थीका प्रारम्भ हिंसात्मक क्यों न शीघ्रतासे या शनैः शनैः करना चाहिये । हो ? यह बात दूसरी है कि साधारण गृहस्थ संकल्पी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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