SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म और अहिंसा (लेम्पक-श्री अजितप्रसाद जैन, एम० ए०, एडवोकेट) -RRRRRANGER जैनधर्म अहिंसा-प्रधान धर्म है। "अहिंसा परमो बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।।१०।। धर्मः" महाभारतका भी वाक्य है; परन्तु यह जैनधर्म यदपि क्रियते किश्चिन्मदनोद्रेकादनगरमणादि । का खास झण्डा है। जैनधर्मका नाम ही अहिंसाधर्म तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ।।१०९।। हिंसा पर्यायत्वात्सिद्धा हिंसान्तरणसनेषु । जैनाचार्यों ने चारित्रकी व्यवस्था और मीमांसा बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूढुंव हिंसात्वम् ।।११।। अहिंसाके आधारपर की है। इन्द्रिय-दमन, त्यागाव- एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुश्चत्यनर्थदण्डं यः । लम्बन, व्रतोंका अनुष्ठान, सामायिकका सेवन, चित्त तस्यानिशमनवयं विजयमहिंसावतं लभते ॥१४॥ की एकाग्रताका सम्पादन, चिन्ता-निरोध, धर्मध्यान, इति यः षोडशयामान गमयति परिमुक्तसकलसावणः । शुक्लध्यान, सबकुछ अहिंसाधर्मका हीपालन है। प्रात- तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति ॥१५७।। ध्यान-रौद्रध्यानादिरूप मावध चित्तवृत्तिसे तथा योगों इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाबतित्वमुपचारात् । की-मन-वचन-कायकी असावधान प्रवृत्तिसे द्रव्य उदयति चरित्रमाहे लभते तु न संयमस्थानम् ॥१६०।। प्राणोंका व्यपरोपण न होते हुए भी आत्माके स्वच्छ इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजतिबहुनान भोगान् । निजभावका नाश होता है, और ऐसा होना हिंसा है- बहुतरहिंमाविरहात्तम्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥१६६।। आत्मस्वभावका घात है। हिंसायाः पर्याया लामोऽत्र निरस्यतं यतो दाने । श्री अमृतचन्द्रसूग्नेि पुरुषार्थसिद्धयुपायमें बड़े तस्मादनिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥१७२।। जोरके साथ यह उपदेश दिया है कि सब पाप हिंसामें नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवा यतस्तनुताम् । और सब पुण्य अहिंसामें गर्भित हैं। हिमा-अहिंसा सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् ।।१७।। की व्यापकताको बतलाने वाले आपके कुछ वाक्य अहिंसाका अटल प्रधान सम्यकदर्शनकी पहिली इस प्रकार हैं: निशानी है और उमका व्यवहार (अमल) सम्यक् चारित्रका मार्ग है । व्रती श्रावक अहिंसाव्रतको एकसर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । देश धारण करता है। वह हिंसाका सावद्ययोग तथा अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवसरति ॥९९॥ अशुभकर्मास्रव-कारण पाप मानता है। यदि वह अर्था नाम य एते, प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । एकदेश हिंसा करता है तो उसको क्षम्य, वाजिबी, हरति स तस्य प्राणान् , यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।।१०।। ठीक, अनिवार्य, धर्मानुकूल, धर्मादेशानुसार नहीं हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वन् । मानता। वह उसका प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण तथा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy