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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ राजाकी थी यह इन्हें कैसे मालूम ? इसका तो किसी अधूरापनसा नींद नहीं लेने देता था। आज भी को भी पता नहीं है-अब तक।' वही सब कुछ है । फर्क है तो इतना कि आज उस और वह लौट पड़े उमी दम ! बरोर कुछ कहे- तकलीफ़की किस्ममें तब्दीली होगई है। सुने, चुप ! हल्की प्रसन्नता और मीना-सन्देह दोनों रात बीतती जारही है। पर सूर्यमित्रका ध्यान उनके साथ थे। उसकी ओर कतई नहीं है । वह सोच रहे हैंरात, कैसी विह्वलता कैसी असमंजसता और 'कितनी उपयोगी, कितनी अमूल्य, कितनी कल्याण कारी विद्या है ? ऐसी विद्या पाने पर संसारमें क्या कैसी धूप-छायासी आशा-निराशाके साथ बीती। नहीं किया जासकता ? जरूर लेनी चाहिए-यह यह कहनेसे अधिक अनुमान लगानेकी बात है। विद्या ! फिर ब्रह्म बालकका तो विद्यापर पूर्णाधिकार __सुबह हुआ ! सूर्य चढ़ा ! सूर्यमित्र-कमल-विक है। जो विद्या ले वह थोड़ी।' सित हुए । तभी दो अत्यंत लालायित आँखोंने देखा -रत्नालंकृत, नेत्र-वल्लभ, सुन्दर अँगूठी, विशाल विद्या प्राप्त होनेपर वह क्या २ कर सकते हैं ? पंखुरियों वाले मनोहर कमलकी गोदमें पड़ी मुस्करा कानसा विद्वान् तब उनक मुकाबिलका गिना जा रही है। सकेगा ? भविष्यक गर्भमें क्या है, क्या अतीतकी गांद हर्षमें डबेहए शरीरके दोनों हाथोंने शीघ्रता में समा चुका है ? जब यह वह बताएँगे, तब कितना पूर्वक उसे प्राप्त कर लिया, और इसके दसरे ही क्षण यश, कितना नाम उन्हें संसारमें मिलेगा ? महागजके अँगूठी सूर्यमित्र की उंगली में पड़ी, अपने सौभाग्य हृदयमें तब उनके लिए कितनी जगह बन जायेगी ? पर जैसे हँस रही थी। आदि मधुर-कल्पनाएँ, चलचित्रकी तरह आँखोंक सूर्यमित्र दर्बार गए—मनमें न संकोच था, न आगे सजीव बन कर आने लगीं। भय । हमेशाकी तरह प्रसन्न, गंभीर, गुरुत्वपूर्ण। और ?–इसी अतृप्त-लालसाके सुनहरे-स्वप्नों बैठे ! अपनी भूलकी समालोचना करते हुए में रातकी गत बीत गई। लेकिन सुबह, प्रभातके अँगूठी महाराजको सौंपी। उन्होंने मामूली तवजहके नए सूरजके साथ-साथ सूर्यमित्रके हृदयमें भी एक साथ अँगूठी हाथमें ली और उँगलीमें पहिन ली। नवीनताने जन्म लिया। वह थी-विद्याप्राप्तिकी ___एक छोटी, संक्षेप सी मुस्कराहट उनके अोठों अटूटचेष्टा । विद्या मनमें चुभ जो गई थी। पर दिखलाई दी। मनमें चुभीका उपाय है-दृढ़संकल्प । रातभर फिर दैनिक राजकार्य। जो कोरीआँखों उधेड़बुन होती रही है, उसने x xxx सूर्यमित्रको इसी नतीजेपर पहुँचाया है। अब उन्हें रुकावटें, पथभृष्ट नहीं कर सकतीं । बाधाएँ इन दिनों सूर्यमित्रका जीवन जाने कैसा बन रहा चित्तवृत्तिको डुला नहीं सकतीं। जो लहर उठी है, है ? पिछली रात भी विह्वलता, भूखसी, चावसा, वह विद्या प्राप्त होने तक अब उनका साथ देगी।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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