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________________ किरण १] मात्म-पोष ५६ . दर्याफ्त कगया गया।- 'वासनाहीन, परम- ये हों ! तो'.....१ शामका जरा प्रबेरी चलना ठीक शान्त, तपोधन, दिगम्बर-साधु महाराज 'सुधर्माचार्य' रहेगा । ज्यादह लोग देख भी न सकेंगे, और मतलब नगर-निवासियोंके भाग्योदयस प्रेरित होकर, समीपके भी पूग हो जायेगा।' उद्यानमें पधारे हैं। सुखाभिलाषी, धर्म-प्रेमीजन उनके अब सूर्यमित्रके महपर बदहवासीकी कुछ कम दर्शन-बन्दन द्वारा महत्पुण्योपार्जनके लिए जारहे हैं। रेखाएँ थीं । भीतर आशा जो उठ-बैठ रही थी। सूर्यमित्रका स्वार्थ करवट बदलने लगा। अका- x x x x ग्ण ही, ऋषिप्रागमनमें उन्हें अपनी चिन्तानिवृत्तिका आभास दिखलाई देने लगा | विचार मन ललकारता, पैर पीछे हटते । प्राशा उत्तेजित आया-'सम्भव है ये साधु अपने तपोबल, या करती, पदमर्यादा मुर्दा बनाती। स्वार्थ भागे धकेलता, विद्याबल द्वाग अंगूठी के बारेमे कुछ बतला सकें! संकोच पीके खदेड़नेको तुल जाता ! बड़ी देर तक लेकिन......। यही होता रहा। सूर्यमित्र प्राचार्यप्रवरके समीप तक उसी वक्त तिचारोंके मार्ग में रुकावट आ न पहुंचकर, दूर ही दूर चक्कर काटते रहे । कभी खड़ी हुई। 'लेकिन मेग एक जैन-ऋषिके पास सोचते-'लौट चलें ।' कभी-'आए हैं तों पूछना जाना, कहाँ तक ठीक रहेगा ? प्रजाकी दृष्टिमें · ?- चाहिए।' अगर महाराजने सुन पाया...: 'मैं ? मैं एक शान सिन्धु आचार्य-महाराजने देखा-'निकटगज्य-कर्मचारी होकर एक साधुके पास. दीनताके भव्य है-आत्मबोध प्राप्त कर सकता है।' भाव लेकर जाऊँ ?-नहीं, यह हर्गिज उचित नहीं। उधर सूर्यमित्र सोच रहे हैं-'इतने नागरिकोंके अँगूठीके लोभमें पद-मर्यादाको भूलजाना मूर्खता बीच, मैं कैसे पूछ सकूँगा कि मेरी अंगूठी कहाँ गई ? होगी।' मिलेगी या नहीं ? मिलेगी तो कब, कहाँ ?.... अन्तद्वेन्द !!! किसाधुशिरोमणि स्वयं कह उठते हैं-'सूर्य'पर, अँगूठीकी समस्याका हल होना तो जरूरी मित्र । अपने महाराजकी अंगूठी खोकर अब चिन्ताहै। बगैर वैसा हुए मंग पद खतरेस वाली है, यह वान बन रहे हो ? वह सान्ध्यतर्पण करते समय, कौन कह सकता है ? अँगूठी साधारण नहीं, मल्य- उँगलीसे निकल कर-तालाबकं कमलमें जा गिरी वान है। मेरा भविष्य उसके साथ खोया जा रहा है। है। सुबह कमल खुलनेपर मिल जायेगी, चिन्ता उसके अन्वेषणका मार्ग निश्चित होना ही चाहिए।' क्या है !' दुविधा ! असमंजस !! ___ सूर्यमित्रके जलते हुए हृदयपर जैसे मेष-वृष्टि क्या करना चाहिए ? आशापर सब-कुछ किया हुई । कम अचम्भित हुए हों, यह भी नहीं। काश ! जाता है। फिर अपना स्वार्थ भी तो है। अगर साधु-शब्द सच निकलें" के साथ २ यह भी सोचने अँगूठी मिलनेका उपाय मिल गया तब ? साधुओंके लगे कि है जरूर कोई-न-कोई विद्या, इनके पास ! पास बड़ी-बड़ी विद्याएँ होती है, कौन जानें उन्होंमेंसे नहीं, मेग नाम लेकर सम्बोधन कैसे किया ? अँगूठी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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