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अनेकान्त
[वर्ष ४
अँगूठीका मुट्ठीमें दवाये रहे । फिर देखा तो महाराज सोच रहे है-'महाराजका क्या जवाब दिया जायेगा? को भी अँगूठी वापस लेनेमें देर थी। अहतियातन दर्बारमें जाने तककी हिम्मत नहीं पड़ रही, फिर मुँह सूर्यमित्रन अँगूठीको उँगली में डाल लिया।...... किस तरह दिखायें ? अगर इसी दरम्यान उनकी
और बातोंहीबातोंमें घर लौट आए ! न इन्हें बुलावट आजाय ? ठीक उसी तरहकी अँगूठी बन अँगूठी वापस करने की याद रही, न महागजको माँग सकेगी ? नमूना बताया कैसे जायेगा ? और फिर लेनेकी । घर आकर निगाह गई तो अँगूठी उँगलीमें! कितनी रकम चाहिए-उसके लिए ? कुछ शुमार है ! सोचा-'भूल होगई । कल दर्बाग्में हाजिर कर देंगे। यह मैं कर कैसे सकता हूं ? काश ! अँगूठी कहीं और क्षमा याचना भी, अपनी असावधानी की!' मिल जाए ? क्या होगा अब ? यह कौन बनाए ? अँगूठी उँगली में ही पड़ी रही !
ज्योतिष-विद्या-कोविद भी तो ठीक-ठीक नहीं सुबह जब दर्बाग्में चलनेका वक्त हुआ तो उँगली बतला पा रहे । घोर संकट है। कैसी कडुवी समस्या पर निगाह गई-सूनी उँगली !!!
सूर्यमित्रके दम खुश्क ! शरीरकी रक्तप्रवाहिनी दुपहरी ढलने लगी। . नालियाँ जैसे रुकने लगीं। आंखों के आगे काले- सूर्यमित्रकी दशामें कोई अन्तर नहीं । मुँह सूग्व बादलों जैसे उड़ने लगे। वह सिर थाम कर वहीं रहा है । मन कॉप रहा है। शरीर तापमानकी गर्मीस बैठ गए । सिर जो चकरा रहा था। माथेपर पसीने मुलमा जारहा है । घरमें चूल्हा नहीं सुलगा । मरघट की बूदें झलक आई !
उदासी का शासन व्यवस्थितरूपसे चल रहा है।'अँगूठी कहाँ गई ?-'
किसीकी आँखें बरस रही हैं, काई हिचकियाँ ले रहा हत्यके भीतरी कोनेस आवाज उठी और शरीर है। घातककल्पना, या अज्ञात-भय आँखोंमे, हृदयम के गेम-गेममें समा गई !... लेकिन उत्तर था ठस रहा है-'महाराजका क्रांध जीवित छोड़ेगा या कहाँ ?-देता कौन ? स्वयं सूर्यमित्रका हृदय ही नहीं ?' मौन था।
सूर्यमित्र छतपर चहलकदमी कर रहे थे, इस ___ सारा परिवार दुःखित, भत्यदल चिंतित और श्राशास कि मनकी व्यथा शायद कुछ घटे, कि सारे परिचित व्यथित । घरमें अनायास जैसे भूकम्प अनायाम सड़कपर जाते हुए एक उल्लसित-जत्थेपर का हमला हुआ हो!..
उनकी नजर पड़ी ! जत्थेमे बूढ़े थे, अधेड़ थे, सूर्यमित्रका मन दुश्चिन्ताओं में जकड़ रहा है। जवान थे और खुशीमें ललकते हुए बालक ! कुछ जैसे मरी-मक्वीको चीटियाँ पकड़ रखती हैं। तन- स्त्रियाँ भी थीं, जिनके ओठोंपर पवित्र-मुम्कान-सी बदनकी सुध उन्हें नहीं है। आज दर्बारमें जाना हिलोरें लहरा रही थीं । विश्व-वैचित्र्यके इस स्थगित कर दिया है । खाने-पीनेको ही नहीं, बल्कि ज्वलन्तउदाहरणने सूर्यमित्रके दुखते हुए मनमें एक भूख तकको भूले बैठे हैं !
चमकसी पैदा की ! मन मचल पड़ा-'ये लोग कहाँ सोचना ही जैसे जरूरी काम है उनका प्राज! जा रहे हैं ?'