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________________ किरण ३] हरिभद्र-सरि कला है। जैसाकि 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के तृतीय स्तम्बकमें अषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैपाऽपि तत्वतः ॥ ईश्वर-कर्तृत्ववादसे स्पष्ट है । तार्किक खंडन-मंडनके वाता- तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽर्वागदृशां सताम् । वरणमें भी इतनी श्रादर्शताका पालन करना अपनी सर्वोच्च युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महाऽनर्थकरः परः ।। निशानाथप्रतिक्षेपो यथाऽधानामसंगतः । भद्रताका सुन्दर प्रमाण है। पं० बेचरदासजी लिखते हैं कि तद्भेदपरिकल्पश्च तथैवाऽर्वाग्यशामयम् ।। इस दृष्टिसे श्री हरिभद्र-सूरि सदृश समर्थ बोधक मुझे और न युज्यते प्रतिक्षेपः सामान्यस्याऽपि तत्सताम् । कोई प्रतीत नहीं होता है । अनेकान्तजयपताकासे प्रमाणित प्रार्यापवादस्तु पुनर्जिहछेदाधिको मतः ॥ होता है कि ये प्रचंड वादी थे, किन्तु जैसे अन्यवादियोंके ज्ञायेरन हेतुवान पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । ग्रन्थोंमें प्रतिवादियोंके प्रति प्रायः विषवमन किया जाता है. कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥ ग्रहः सर्वत्र तस्वेन मुमुक्षणामसंगतः । वैमा ये अपने बहुमूल्य ग्रन्थोंमें करते हुए नहीं पाये जाते हैं। मुक्नो धर्मा अपि प्रायस्यक्तम्याः किमनेन तत् ॥ बल्कि ये तो 'अाह च न्यायवादी', 'उक्तं च न्यायवादिना' -(योगदृष्टिसमुच्चय, १०,११,१३२, १३६, १३०, 'भवता ताक्किच ट्टामाणना', 'न्यायविदा वातिके', 'यदुक्तं १३८, १३३, १४७, १४६) सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि श्रादर-सूचक शब्दोंका उपयोग करते भावार्थ-हे भाइयो ! शब्दजालमय ये सब विकल्प हुए देग्वे जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि जो समर्थ होता है, अविद्या-प्रशानसे उत्पन्न हुए हुए हैं: इन सबका मूल आधार वही इतना धैर्य और उच्चताका पालन कर मकता है। इस कतर्क है जिससे कि अाज तक कुछ भी सार नहीं निकला प्रकार प्राचार्य हरिभद्र-सूरि प्रखर वाग्मी, गंभीर दार्शनिक, है। जैसे कि एक पागल हाथी पर बैठे हुए श्रादमीने कहा और अजेयवादी थे, यह बखूबी साबित होजाता है। कि मार्गमेंसे मब हट जात्रो, अन्यथा यह हाथी चोट माप्रदायिक विष, और मताग्रहमे उत्पन्न होने वाले पहुँचावेगा। इस पर एक कुतार्किकने विकल्प उठाये कि कलह, मतभेद, अदूरदर्शिता, अबन्धुत्व भाव, ईर्षा, द्वप हाथी समीपमें आये हुएको प्राप्तको-मारता है या दूरस्थ श्रादि मानवता-नाशक दुर्गुणोंका समूल नाश होजाय, यह अप्राम–को भी मारता है ? यदि प्राप्तको, तो तुन्हें ही हरिभद्र-सूरिकी प्रातरिक इच्छा थी; और यही कारण है कि क्यों नहीं मार डालता है, तुम तो पाप्त हो; यदि अपाप्तको वे अपने योगदृष्टिसमुच्चयमें सर्वधर्म-समन्वय और सर्वबंधुत्व मारता है, तो फिर दूर हटनेसे क्या लाभ ? अप्राप्त अवस्था भावनाका सुन्दर और भावपूर्ण उपदेश देते हुए दिग्वाई में भी मार मकेगा। इस प्रकारके कुतर्कोसे अन्तमें वह देते हैं। उनकी सर्वबन्धुत्व भावनाका स्वरूप उनके अपने हाथी द्वारा मार डाला जाता है, वैसे ही श्रद्धा-सम्बन्धी कुतकं शब्दोमें ही इस प्रकार है: भी श्रात्माका सत्यानाश कर डालता है। भविद्यासंगताः प्रायो विकल्पाः सर्व एव यत् । भिन्न भिन्न महापुरुषांकी जो भिन्न भिन्न तरहकी देशना तद्योजनात्मकश्चैषः कुतः किमनेन तत् ॥ देखी जाती है, उसका मूल कारण है-शिष्योंकी अथवा जातिप्रायश्च सर्वोऽयं प्रतीति-फल बाधितः । तत्कालीन जननाकी आध्यात्मिक विभिन्नता । क्योंकि वे हस्ती व्यापादयस्युक्तौ प्राप्ताऽप्राप्तविकल्पवत् ॥ चित्रा तु देशनैतेषां स्याह विनेयानुगुण्यतः । महात्मा ( महावीर, बुद्ध, कृष्ण, कपिल, गौतम, कणाद, यस्मात् एते महारमानो भवग्याधिभिषग्वराः ।। पतञ्जलि, आदि श्रादि ) आध्यात्मिक व्याधियोंके योग्य वैद्य पद्वा तत्तसायापेक्षा तस्कालादि नियोगतः । और ज्ञाता थे । अथवा उन्होंने भिन्न भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल,
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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