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________________ २०६ अनेकान्त [वर्षे विस्तृत-विषय-संयुक्त, विपुल परिणाम संपन्न और अर्थ- व्यवस्थित रूपसे प्रकरणोके रचयिता हैं । व्यवस्थित पद्धति गाभीर्यमय महान् कृतियोके साथ साथ प्रकरण रूप छोटी से शास्त्रीय रूपमें रचित ग्रन्थ ही प्रकरण कहलाते हैं । येन छोटी किन्तु महत्वपूर्ण रचनाएं भी अच्छी संख्यामें की थी। केन प्रकारेण अव्यवस्थित रूपमे लिखित एवं प्रासंगिक सम्भव है कि उनमें से कुछ ग्रन्थ तो इतस्तत: भंडारोंमें और अप्रासंगिक कथाओंसे युक्त ग्रन्थाकी अपेक्षा प्रकरणों अथवा वैयक्तिक ग्रन्थमंग्रहोंमें पड़े हुए होंगे और कुछ का विशेष और स्थायी महत्त्व है। क्योकि इसमें महान् अनेकान्त वर्ष ३ किरण ४ में. इसी लेखमालाके अन्तर्गत कलाकारके अमर साहित्यकी बहुमूल्य कलाका स्फुट दर्शन 'पूर्वकालीन और तत्कालीन स्थिति' के रूप में वर्णित कारणो परिलक्षित होता है । इन्ही विशेषता के कारणांमे चरित्र से नष्ट हो गये होंगे। नायककी कुतियाँ उन्हें जैन माहित्यकारोमें ही नहीं, बल्कि हरिभद्र-सूग्नेि जिस प्रकार संस्कृत और प्राकृत दोनों अखिल भारतीय माहित्यकारोकी सर्वोच्चपंक्तिमें योग्य स्थान भाषाप्रोमें रचनाएँ की हैं, उसी प्रकार गद्य और पद्य दोनो प्रदान करती है, जो कि हमारे लिये गौरव और सम्मानकी ही प्रणालियों का श्राश्रय लिया है । हरिभद्र-मूरिके प्रादुर्काल बान है। के पूर्व भागम रहस्यका उद्घाटन करने वाली नियुक्तियाँ श्राचार्य उमास्वाति. मिद्धमेन दिवाकर, जिनभद्रगणि और चूर्णियाँ ही थीं। वे भी केवल प्राकृत भाषामें ही। क्षमाश्रमण श्रादि विद्वान् श्राचार्योंने प्रकरणात्मक पद्धतिकी इन्होंने ही श्रादरणीय श्रागमग्रन्थों पर मंस्कृत टीकाए जो नीव डाली, हरिभद्र-मृग्नेि उसका व्यवस्थित अध्ययन लिखनेकी परिपाटी डाली। हम प्रकार जेनमा हित्यमें नवीनता किया और उममें अनेक विशेषताएँ एवं मौलिकताएं प्रदान के साथ मौलिकता प्रदान की, जिमका स्पष्ट और महत्वपूर्ण कर उमका गम्भीर विकास किया; और फल स्वरूप श्वेताप्रभाव यह पड़ा कि इनके पश्चात् यह प्रवृत्ति विशेष वेगवती म्बरीय जैन साहित्यको पूर्ण ताके शिखर पर पहुंचा दिया । बनी और सभी श्रागमों पर संस्कृत-टीकाएँ रची जाने लगीं। हरिभद्र-सारने जितना जैनदर्शन पर लिम्वा, लगभग प्राकतका प्रभाव फिर भी इन पर कम नहीं था । यही कारण उतना ही विभिन्न प्रमंगों पर वैदिकदर्शन और बौद्धदर्शन है कि टीकाश्रोमें जहा पर प्राचीन नियुक्तियों अथवा पर भी लिखा । ब्राह्मणमिद्धान्तों और बौद्ध-मान्यताओं पर चणियोंके अंशांको प्रमाण रूपसे उद्धृत करनेकी आवश्यकता की सीमामा करने गम्भीर मीमामा करते समय भी एवं चर्चात्मक तथा प्रतीत हुई, वहाँ पर इन्होने प्राकृत रूपमें ही उस उम अंश खंडनात्मक शैलीका अवलम्बन लेते ममय भी मध्यस्थता. : को उद्धृत किया है। किन्तु ज्या ज्या ममय व्यतीत होता मज्जनोचित मर्यादा और श्रादर्श गम्भीरताका किसी भी गया, त्यो त्यो प्राकृतका प्रभाव कम होता गया और यही अंशमें उल्लंघन नही किया है, यही हमारे चरित्रनायक की कारण है कि आचाराग एवं मूत्रकृताग पर टीका करने वाले अमाधारण विशेषता है। शीलाक सूरिने प्राकृत-उद्धरणके स्थान पर संस्कृत-अनुवाद शॉति पूर्वक और मध्यस्थ भावके माथ अपनी बातको को ही स्थान दिया है। समझाने वालोंमें हरिभद्रका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय प्रकरणात्मक शैली और माध्यस्थपूर्ण उच्चता है। कहा जा सकता है कि दार्शनिक क्षेत्रमें इस दृष्टि से प्रोफेसर हर्मन जैकोबी लिखते हैं कि यदि पारिभाषिक हरिभद्र अद्वितीय हैं। जैनदर्शनके सिद्धान्तोका समर्थन अर्थ में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि हरिभद्र-सूरि ही करते समय भी अपनी निलिमता बनाये रखना एक आदर्श
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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