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________________ २०८ अनेकान्त [वर्ष ४ भाव, नयादि दृष्टियोंके कारणसे भिन्न भिन्न देशना दी है; नहीं होमकता है, क्योंकि यह महात्मा बुद्धका कहा हुआ है। किन्तु उनका मूल श्राधार तो मुक्ति ही था । इसलिये विना एवं च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानु गुण्य त:। पूर्ण अभिपाय जाने हमारे जैसे अल्पशों द्वारा उनका खंडन अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्ववेदिना ॥ शा. स्त. ६, ६३ किया जाना निस्संदेह महान अनर्थकारी ही सिद्ध होगा। जिस प्रकार अंधो द्वारा चन्द्रमाका केवल कल्पना द्वारा इसी प्रकार यह शून्यवाद भी अनेक मुमुक्षुओके हितके लिए ही उस तत्त्वज्ञ महापुरुष द्वारा कहा गया प्रतीत होता है। विभिन्न वर्णन किया जाना पूर्ण मूर्खता ही है, उसी प्रकार अन्ये ग्यारव्यापयन्स्यवं समभावप्रसिद्धये । हमारे जैसों द्वारा उन देशनाओके सम्बन्धमें भेद-कल्पना अद्वेतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्वतः ॥ करना पूर्ण मूर्खता ही है । जहाँ सामान्य पुरुषका प्रतिक्षेप शा० स्त०८,८ करना भी अमंगत है, वहीं इन महान् पुरुषोके सम्बंधमें माराश यह है कि कदाग्रहसे ग्रमित जनताकी विषमप्रतिवाद करनेकी अपेक्षा तो जिव्हा-छेद करना अधिक वृत्ति, समताभावरूपमें परिणति करे, इसी सद्देश्यको श्रेयस्कर है। विचार करो कि यदि तर्क-द्वारा अतीन्द्रिय लेकर भारतीय-शास्त्रोमें अनवादी देशना दी गई है। पदार्थोका वास्तविक ज्ञान हो सकता होता तो श्राज दिन पं० बेचरदासजी लिखते हैं कि श्री महावीर स्वामीके तक ये तार्किक शंकाशील क्यों रहते ? इसलिये मुमुक्षुश्री शामन संरक्षक श्राचार्यों से ऐमा उदार मतवादी, ऐमा के लिये किसी भी प्रकारका कदाग्रह रखना सर्वथा असंगत समन्वयशील निरीक्षक कोई हुआ है तो ये हरिभद्र ही हैं । है। विचार तो करो, यदि मुक्ति चाहते हो तो इन सब इनके पश्चात् अद्यावधि किमी माताने जैन श्राचार्यों में इतने विकल्पी, मेद-भावनाओ. और एकान्त-मान्यताप्रोको उदार, लोकहितकर, और गंभीर निरीक्षक को जन्म नही छोड़ना पड़ेगा: तो फिर तर्क और विकल्प कैसे उपयोगी दिया है। ठहरे? श्राचार क्षेत्र में फैली हुई अव्यवस्था, दुराचार, और पाठकवृन्द ! देखिये, कितनी श्रादर्श सद्भावनाएँ और भ्रष्टाचारका भी हरिभद्र-सूरिने कमा निराकरण किया है, कितनी समुन्नत, उदार और विशाल सुदृष्टि हरिभद्र-सरिकी " यह पहले लिखा जा चुका है। थी। यही भद्रवृत्ति हम आपके अन्य सद्-अन्यों में भी पाते इस प्रकार हरिभद्र-सूरिमें मध्यस्थता, उदारता, गुणहै। शास्त्रवार्ताममुच्चयमे आप लिखते हैं कि ग्राहिता, विवेकशक्ति, भक्तिप्रियता, विचारशीलता, कोमएवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । लना, चारित्रविशुद्धि और योगानुभूति श्रादि अनेक गुण कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हिस महामुनिः । विद्यमान थे-ऐसा प्रतीत होता है। बौद्धोके प्रति इनका शा. स्त०३, ४४ अर्थात्-यह प्रकृतिवाद भी सत्य ही समझना चाहिए, __ क्रोध अंतिम क्रोध था, ऐसा भी ज्ञान होता है । इसके प्रमाण क्योंकि यह महर्षि कपिलका कहा हश्रा है, जो कि दिव्य में प्रशम रस पूर्ण 'समराइच्चकहा' रूप कृति सामने विद्यमान महामुनि थे। हैं । इन्होने जैनसाधुभिक्षा, जैनदीक्षा आदि विभिन्न विषयों "न चैतदपि न न्यायं यतो बुद्धो महामुनिः ॥ पर अपने सुन्दर और भावपूर्ण विचार अष्टक, षोडशक, शास्त. ६.५३ और पंचाशक आदि में भली प्रकारसे व्यक्त किए हैं। इससे तात्पर्य यह है कि यह बौद्ध-विज्ञानवाद भी असत्य स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि ये रुढि-प्रिय नहीं थे, अपितु
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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