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त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें उपलब्ध ऋषभदेव-चरित्र
(ले०-५० परमानन्द जैन शास्त्री) तिलोयपएणत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) नामका एक बहुत श्रापका जन्म अयोध्यानगरीमें चैत्र कृष्णा नौमीके दिन प्राचीन दि० जैन ग्रंथ है, जिसका विषय तीन लोककी बातें उनराषाढा नक्षत्रमें हुआ था। पिताका नाम नाभिराय हैं। इसके कर्ता वे ही प्राचार्य यतिवृषभ हैं, जिन्होने उत्पत्तिका अभिप्राय यहाँ गर्भावतारसे जान 'कषाय प्राभृत' पर छह हज़ार श्लोक-प्रमाण चूर्णी-सूत्रोंकी पड़ता है; क्योंकि आदिपुराणादि ग्रन्थोंमें तीसरे रचना की है। तिलोयपण्णत्तीकी रचना ईसाकी ५ वी कालके उक्त चौगसी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ शताब्दीसे कुछ पूर्व अथवा विक्रमकी ५ वी शताब्दीमें माम अवशिष्ट रहने पर मर्वार्थसिद्धि विमानस मानी जाती है । इस ग्रन्थमें कितना ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक
आषाढ कृष्णा द्वितीयाके दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में कथन पाया जाता है। वर्तमान चतुर्विशति तीर्थकरोका जो भगवान ऋषभदेवकं मातृगर्भ में आनेका उल्लेख खण्डशः संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त इसके चौथ पर्व में दिया मिलता है। यथाहुआ है उमम प्रथम तीर्थ. श्रीऋषभदेवकी जीवनीका कितना
तृतीयकालशेषेऽसावशीतिश्च तुमत्तरा। अंश उपलब्ध है यह बतलानेके लिये ही श्राज यह लेख
पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमासपक्षयुता तदा ॥ ६३ ।। लिखा जाता है। इससे पाठकाको सहज ह। म यह मालूम अवतीर्ण सुगान्ते अखिलाथै विमानतः । हो मकेगा कि श्री जिनमेन अादि अाचार्योंके श्रादिपुराण
आपाढमितपक्षम्य द्वितीयायां सुगेत्तमः ।। ६४ ॥ श्रादि ग्रन्थोमें ऋषभदेवका जो चरित पाया जाता है उसके
उत्तराषाढनक्षत्रे देव्यागर्भ समाश्रितः । बीज ऐसे प्राचीन ग्रन्योमें कहाँ तक उपलब्ध होते हैं। और
स्थिता यथा विचाधोऽसौ मौक्तिकं शुक्तिसम्पुटे।।५।। इससे उन ग्रन्थोके उक्त कथनोकी पूर्व-मंगति एवं प्रामा
-श्रादिपुगण, पर्व १२ गिकतामें कितनी दी बृद्धि हो सकेगी। मूल पथके कुछ
तृतीयकालशेपेऽसावशीनिश्चतुरुत्तरा। श्रावश्यक एवं उपयोगी वाक्योंको फुटनोटके तौर पर उद्भत
पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमासपक्षयुता संदा ॥ ९७ ॥ कर दिया है, जिससे तुलनामें अामानी रहे । पत्रसंख्या म्वगावतरणं जैनमाषाढ बहुलम्य तु। जहाँ दी गई है वह अागरा प्रति की दी गई है । अस्तु ।
द्वितीयायामुत्तगषाढनक्षत्रेऽत्र जगन्नतं ॥९८॥ त्रिलोकप्रजप्तिमें उपलब्ध 'ऋषभदेवचरित्र' इस
-हरिवंशपुराण, ८ प्रकार है:
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी प्रायः यही समय वर्तमान अवसर्पिणीकालके मुग्वमा-दुग्वमा नामक ऋषभदेवकी गर्भोत्पत्ति का बतलाया है। अन्तर कंवल तृतीयकाल के चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष अाठ मास और इतना है कि उनके यहाँ गर्भ में पानेकी तिथि आषाढ़ एक पक्ष अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेवकी उत्पत्ति हुई *। बदी दोइजके स्थान पर प्राषाढ कृष्णा चतुर्थी निर्दिष्ट * सुसमदुसमंमि णामे सेसे चइसीदिलक्खपुव्वाणि। की है, जैसाकि आवश्यक-नियुक्ति और प्राचार्य वासतिए भडमास इगि पक्खे उसह-उप्पत्ती ॥५५०॥ हरिभद्रको टीकाके निम्न अंशसे स्पष्ट जाना जाता है: