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________________ किरण ६-७] थी। उसके पैरोंमें, कोमल होते हुये भी, छाले नहीं पड़े थे । यह अविचलित थी। फाटकके बाहर पहुँच कर में ठिठका! नगरीके बाहर एक बड़ा पिनी विशाल देवमन्दिर पीली पीलों जाओसे मुशोभित भूले भटके यात्रियोको 'धर्म' रूप छान देनेके लिये खड़ा था। उसकी पीली जसे सुशोभित दीरक कलश युक्त चंटी अपने प्रामाणिक होनेका प्रमाण स्वयं दे रही थी एक विस्तृत ललाट युक्त वृद्ध मुस्वद्वार पर पड़ा था मानो यात्रियांका ब्राह्नान कर रहा दो। उसकी भुजा विशाल थी। नेत्र न्यूय चौड़े एक । महापुरुष-सा दिव्य तेन उसके तनसे निकल रहा था । उस ने मुझे पुकारा !......... जीवन नैय्या - 'मन ठहरो' 'मन टहरो' कह कर उस रमणीने मुझे यारके फाटक के अन्दर धकेल दिया! मुझे धकेलने में सहायता देकर चन्द्र होते हुए फाटकके ऊपर बाहर की ओर उसी महापुरुषके इङ्गित करने पर मैंने देखा कि उस नगरी का नाम लिखा है और वह इस अंग था'वामना' 1 । | महापुरुषके पास मेरे सम्हल जानेका यही अन्तिम प्रयत्न था किन्तु दायरे में मूट और घूम कर मैंने बुद्ध ! उमी फाटककी दरारोंमें देखा, जरा भी न थी, श्राभामित वह रमणी, कुदनी उनी तर मी मदमानी, उमी समुद्र के किनारे मेरी नौका म दौड़ी चली जा रही थी। कदाचित् मेरे ही प्रेमे किसी और युपकको फामने वह 'माया' थी न! हाहाकार कर मेरा अन्तर से उठा ! तलश्चात् ऊपर जो निगाह उठाई तो में श्रात्म-विस्मृत सा हो गया ! नगरकी उच्च अट्टालिकाएं गर्व से अपना शिर ऊँचा किये पड़ी थीं मुझे श्राभास हुआ मानोंमें स्वर्ग में आगया है ! बाहर फाटक पर इन शब्दकी कटीली मुन हूँ हरी प्रभाको मैं बिल्कुल भूल गया ! और फिर मुझे धरना लम्बा वक्षःस्थल दिखाते हुए पथका ध्यान हुआ, उमी छटा ४०३ से मैंने उस पर फूल बिखरे हुए देखे । एक फूल पर पग रम्पते ही में बिक गया अपना काँटा चुभा कर मुखरित फूल मानो मेरी ओर विंस कर कह रहा था - "यह वासना का रथ है, इतना महल नहीं जितना तुम समझते हो। या धर्म और ईमान सबको ठुकराती हुई मायाके साथ तुम जैसा थाना रहता है! यह वामनाका पथ !! और उसी प्रकार में श्रात्मविस्मृत-मा, खोया-मा उस पथ पर दौड़ गया ! नन्हें नन्हें फूल मेरे पैरोके नीचे अपनी स्मृति छोड कर कुचल गये ! एक पने विस्तृत बाजार छोड़ से गुजरते हुए मैंने देखा कि दोनों तरफ लम्बी लम्बी कला पैटी हुई यौनका मौदा यौवन से करने वाली मेरा ब्राह्नान कर रही है। उम 'माया' से भी अधिक मोहकी 'चेरिया' वे सुन्दरियाँ, गुलाबी कपोलोसे चुम्बनका आह्वान करती हुई रमणिया नावनी धरती बोसे बोलती वे पुतलियाँ, कोमल श्रग लिये हुए उन हाटों पर बैटी मुझे यही मनी मालूम हुई। यकायक पचासों मनुष्यांने मुझे घेर लिया। छीना झरटी शुरु हुई और उमी कोलाइन में एकका रुमाल नीचे गिर पड़ा, कोने परके दो अक्षरोको बड़ी कठिनतासे छिपात हुए उन्होंने मुझे उन ग्र्माणियों के बीच में धकेल दिया। मुझे । मालूम हुआ वे दलाल थे, बेमनलपके विचोलिये जिनकी १ स्वष्टनाउन 'मोद' नामक दो में मैंने वही पढ़ी थी और तुरंत ही में वामना नगरीकी उन रमणियोंमें रम गया ! बहुत दिन पश्चात् सूर्य मुझे निकलना मालूम दिया । उसकी किरणोंमें मैंने देखा कि मैं वामना नगरीकी पढ़ाई से भी दूर एक निर्जन वनमें कीचड़ के अपाद कुण्ड में पड़ा हुँ मुकी कि कहीं कहीं अपना प्रकाश डाल रही सूर्य थी, वरना मय र अन्धकार मुँह बाये खड़ा था ! कीचड़ पर एक कमल बिजली लोकी तरह मधुले
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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