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________________ ४०२ अनेकान्त [वर्ष ४ गुलाबकी अरुणिमा दौड रही थी, जिममें नब अत्युक्ति कर उठा! रामके वृक्ष पर बैठा उल्लू कोरसे बोल कर नहीं थी (श्रब है)। गुलाबकी कलियोसे उसके नासापुटोंसे उड़ गया ! निकली उष्ण श्वासका अनुभव मुझे हुश्रा । कितना सुन्दर और अगली पौड तक मैं फिर विच चला, जब तक कि लगता था उसका वह भास मुझे ? एक और अनुभवी नेत्रोसे युक्त, उन्नत ललाटसे सुशोभित यकायक उठ कर वह बोल उठी 'पात्रो'! और मैं वृद्धने मुझे रोक नहीं लिया। एक शान्त मगर उच्च ध्वनि मन्त्र-मुग्धकी भौति उसके पीछे चलनेको प्रस्तुत हो गया! मेरे कर्ण-कुहगेमें प्रवेश कर गई, किन्तु कितनी विकट ! एक गहरी निगाह अपनी नौका पर और फिर समुद्र के अतल "नगरकी प्रसिद्ध वेश्याके मंग तू बच्चे कहांको ?" युवतीके गर्भकी ओर दृष्टिपात कर उसकी उत्ताल तरंगोंमें अपनी मुखसे एक भद्दी सी गाली निकल गई! मैं पथकी कंटीली उत्तेजनाकी दो बूदें दाल कर मैं उसके पीछे चल दिया! झाड़ियों पर पैर रग्वता अविश्रान्त-मा चलता ही रहा ! मुझे हम चले जा रहे थे, भूले हुए से। हाँ ! भूले हुएसे, शान नहीं था कि अपना 'मोह' नामक मंत्र वह 'माया' अब तो यही कहना पड़ेगा। हो सकता है वह रमणी अपने तन्त्री मुझमें प्रथम ही फूक चुकी थी! हृदयमें कुछ विहँस-सी रही हो । सन्ध्यासे प्रात:, और प्रात: और हाय, अब भी मेरे नेत्र नहीं खुले थे ! बार बारकी से सन्ध्या यही हमारा काम था। यकायक पैरमें एक ठोकर चेतावनी पाकर भी मैं मम्हला नहीं था ! मुझे क्या ज्ञात लगी, किसीके कगहनेका शब्द सुन पड़ा। कुछ विचलित था कि मैं एक विकराल कंटीली र.फामं फेंका जारहा हूँ। मा होकर मैंने निहाग परन्तु बार बारकी चेतावनी पाषाण पर गनी गिरानेका काम कर रही थी। और भी इसी प्रकारमैं कई स्थान पर टोका गया। 'बाबू' ! 'मुनते हैं था। ___ "याद रखना इस नगरीका नाम 'वास....", जिसे मैंने दिशा-शब्द पर ध्यान दिया। मंध्याकी धूमिल, श्रागे न सुन सका था। छाया-सी क्लान्त व जर्जर देह लिये एक वृद्ध मेरा मार्ग ___समझो रे, भैय्यारे" "अरे रे, सुनो २” गम्भीर ताल अटकाये पड़ा था। उसके नेत्रोको शून्यमें देखते देखते दो , पर पद ढोकना यह पद मैं अविचलित होकर कई बार वेत डोरोका प्राश्रय लेना पड़ा था। उन्हीं दो श्वेत डोरोंके सुन चुका था। इङ्गितसे उसने मुझे बुलाया। मैंने युवतीकी अोर निगाह उठाई, 'धर्मकी शाखाएँ बहुत है' उसके अधर क्रोधसे लालथे। अमिके बीच लपट मी उठती 'बहुत विस्तृत' अपनी भोहोके इशारेसे उमने मुझे चलते रहने का श्रादेश 'बहुत लम्बा दिया। मैं चलता ही था कि उम वुद्धका निराशाभरा स्वर 'माया' मुझे अपनी ओर उत्तरोत्तर लिये जा रही थी। निकला-"इस धर्मानुचरकी भी कुछ सुन लेता बच्चा !” मुझे ऐसा आभास हुअा था कि मानों में एक रज्जु में बँधा और फिर दूर निकला हुआ मुझे देख कर उस बुने जा रहा हूँ ! एक चित्र लिखत-मा कार्य कर रहा हूँ ! चिल्ला कर कहा-"ध्यान रखना, इसका नाम 'माया' हे!" वह मुझे लिये ही जाती थी!! 'माया', मन ही मन दोहरा कर मैं फिर पथ पर पड़ा। दूरसे मैंने देखा एक नगरीका मुन्दर चमकना फाटक, रमणीके पीछे (या श्रय यों कहो 'माया' के पीछे) ! यकायक बहुत ऊँचा मोनेके पत्तरोसे जड़ा हुमा! मेरे पैर दर्द कर में विचलित मा होकर खड़ा हो गया । मेरा मन प्रहास रहे थे। माश्चर्य मैं देख रहा था कि वह रमणी थकी नहीं
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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