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________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ - क्रम कमसे उठते और एक दम यन्द हो जाते थे। इस क्रम प्रादुर्भाव हुआ। जैसे किनारे पर खड़े हुए वे मुझे उपदेश को मैंने पढ़ाकी अमृत वर्षा निचित कर रहे हो— 'मेरे बच्चे ! तूने समझते हुए भी नहीं समझा! मैंने देखा ये तो मन्दिरके वेही पुजारी महापुरुष हैं। उनकी प्रतिक्रिया मानो अब भी अन्धकारमें आलोक प्रकाशित कर रही है। एक तेज उनके शरीर से निकल कर अब भी इस सपन अन्धकारको प्रकाश में बदल रहा था। उनकी दिव्य छटा मेरी झांसें बन्द हो गयीं । ५०४ 'पाप-पक्क' इन्हीं दो शब्दोंसे में उस कमको ग्राहिस्ता आहिस्ता बनते व एकदम विगड जाते देख रहा था। श्रासमान पर धुएँ सी किसी वस्तुसे वनता और विगहना एक शब्द में देख रहा था। एक बार वह बनना था और मिट कर फिर दुबारा दूनी स्पष्टतासे अंकित हो जाता था'नरक' मैं पढ़ पढ़ कर जिसे काँप उठता था ! 1 मृत्यु-जैसी दारुण व्यथासे मैं छटपटा रहा था ! हजारों लाखों कीड़ोसे पाप कुण्डका एक बित्ता भरा पड़ा था। छोटेसे छोटे व पसे बड़े, गुलमुंडेसे खाकर बिलबिलाते हुए हजारो विदुनोसे कटता हुआ मेरा तन बुरी तरहसे पायल हो गया था। ऊपर सागर तट पर आच्छादित हजारों वृक्षों पर का एक एक पसा गिर कर असिधाराका काम कर रहा था। भूखसे में विकन्न था, प्यासने नालू और जीभको जोर के साथ चिपका दिया था। कीचकी प्रमाद यद मेरी नाक फटी जा रही थी मानों में मैलेके अथाह कुडमें पड़ा था। मेरी भूख ऐसी थी कि एक दम लाखों मन गेहूं बैठा बैठा मैं फाँक जाता मगर वहा न तो कोई दानेको पूछने श्राया, न पानीको मेरे जैसे करोड़ों पुरुषोंके चीत्कारोंसे मिलकर मेरा रुदन कुछ नहींके बराबर मालूम पड़ रहा था । यकायक एक मगरमच्छ मुझे खा जाने के लिये दौड़ा। उसके दाँतोंमें किचकिचाकर दारुण व्यथा मैंने भोगी ! मैं समझा था कि मेरी इहलीला समाप्त होगई। मगर मानों जादूके जोरमे सब काम हो रहा था। मैं तो वहीं पड़ा था। उसी करुण-कन्दनको निकालता हुआ। मेरे शरीर में छलनीकी तरहने हजारों छेद हो गये थे। कीचड़के थाह समुद्र में मैं बराबर बहता हुआ चला जाता था, उसी दारुण दुखको भोगता हुआ। मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मेरी इदलीला कब समाप्त होगी ? यह दुख तो मृत्यु-दुखसे श्रोह लाखों गुणा भयङ्कर था ! । अचानक मेरी कल्पना में एक दिव्य तेजस्वी महापुरुपका परन्तु हाय! अब किसीके यसकी बात नहीं रह गयी थी! मैंने उनको कल्पित किया ही था कि 'कर्मयोग' से मैं उस कीचड़ में और ज्यादह फिसल गया महापुरुषकी नामिकामे गहरा निःश्वास मानों मुझे निकलता हुआ भासित हुआ । दूर पर मैंने देखा कि मेरी नावके टूटे हुए बिखरे तते एक भयंकर स्मृतिकी याद दिलाते हुए सहस्रों टुकड़ों में टूट २ कर कीचड़ में धसे जारहे थे, उस अथाह कुडमें विलीन हो रहे थे। और मेरे गुरुने कहा था कि मेरी नौका टूटते ही..... तो क्या मैं दूसरे जन्म में था ? मेरा मन चीत्कार कर उठा !! और इसी प्रकार संसारी, समुद्रके शैशवमें बहकर यौवन रूपी थल पर जाता है। उस उष्ण मल प्रदेश पर 'माया' उसे फँसानको पहले ही से तय्यार बैठी रहती है। 'धर्म' के अनुचरों व उनके आदेशोंको वह केवल टाँग समझता है । जो सँभला सो अनन्तकाल तक अपनी भव्य जीवनियाँ सुन्दरता से बिताता चलता है। नहीं तो, फिर 'माया' उसे 'वासना' के गहरे गड्ढे में फेंक कर निश्चिन्तता से उसके जैसे और मनुष्यांको फँसानेका कार्य करने लगती है जहाँ 'वासना' में फँसा तो फिर वह रमणियोंके द्वारा मृत्यु और नरक से भी बदतर अवस्थाके लिये तत्पर किया जाता है और तब उसके बसकी बात नहीं रह जाती। और वह दारुण दुःख क्या है ? हजार बार श्राचार्योंके व्याख्या करने पर भी पूर्ण रूपसे उस 'नरक' की तुलना नहीं हो सकी और न उसकी व्याख्या ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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