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________________ अयोध्याका राजा [ लेखक-श्री भगवत्' जैन, ] खीकी मभी बातें ठुकराई जान लायक होती है, कम महत्वपूर्ण न होगा ! लेकिन वीरसेनकी समझमें इस पर मुझे यक़ीन नहीं ! दसरी बातोंकी ममानता एक न आई ! न आनेकी वजह थी, और उनकी दृष्टि का दावा पेश करना मैं व्यर्थ ममझता हैं, लेकिन में बड़ी माकूल, कि महागज मधु उनके बड़े गजा है, जहाँतक बुद्धिवादकी मीमा है, उन्हें बिल्कल हेच बड़ी कृपा रखते हैं ! अभी जो पधारे हैं, वह उन्हीं ममझने के लिए मैं तैयार नहीं ! मेरी अपनी गयमें आग्रह पर, उन्हींके संकट-मापन करने के लिए! भीम उनका नगर उजाड़ रहा था, सिंहासन डाँवाडोल जनका भी कुछ-न-कुछ स्थान है ही। उन्होंने जहाँ पुरुषको उंगली पकड़ कर चलना सिखाया है, वहाँ करनेकी ताकमें था, छिपे छिपे शक्ति-संचय कर वासी जगत्-जननीके रूपमें भी दुनियाको बहुत कुछ दिया हान जा रहा था ! अगर वह अपने प्रभु महाराज है। मंमारके सभी महापुरुष उनकी गोद में पल कर मधुका यह सन्देश न पहुंचाते, उन्हें उस दुष्टपर बड़े हुए है । मबने उन्हें 'माँ' कह कर पुकाग है। चढ़ाई करनेकी सलाह न देते, तो इस अनर्थका हिम्सा मबका मातृत्व उनके पास है। कुछ उन्हें भी मिलता कि नहीं ? मधुकं कर्तव्यकी उनमें केवल दुर्गण-ही-दुर्गण देखना दृष्टि-दोष हो बात वह नहीं जानते ! वह जानते हैं सिर्फ इतना कि सकता है, वास्तविक नहीं। अनेको मिसालें ऐसी दी मधु, जो एक महान पराक्रमी गजा हैं, उनकी बुलजा सकती हैं, जब कि पुरुषोंकी बुद्धि स्त्रियोंकी बुद्धि घाइट पर प्रागए, यह गौरवकी बात है ! मौभाग्यकी के मामने पगजित होकर नत-मस्तक हुई। उनकी बात है ! ऐसी हालतम अब अगर उनकं सत्कारम बातको ठुकराकर, पुरुष मान-प्रतिष्ठा, सुम्ब-शान्ति, कुछ कमी रहती है-व और उनकी पत्नी उसमें जी ज्ञान-विज्ञान और जीवन तकको खो बैठा ! स्त्रीको खोलकर सहयोग नहीं लेते-तो यह बड़े अफसांसकी एक मीठी-चुटकी मैंकड़ों महोपदेशकोंके महत्वपूर्ण बात होगी। उपदेशोंसे कहीं ज्यादह होती है, यह पुगणोंमें भरा वीरसन स्वभावसे भोले और अन्धश्रद्धालु नरेश पड़ा है।... हैं। वह मधुके अनेक मातहत-राजाभोंमें सबसे चन्द्राभाने अपने आराध्य-धीग्सनको बहुत अधिक स्वामी-भक्त हैं ! शायद यही वजह है कि कुछ समझाया-बुझाया, लाख मना किया कि मुझे महागज मधुकी विशेष कृपा इन्हें प्राप्त है। अयोध्या-नरेश महाराज मधुके सत्कारका भार न लेकिन चन्द्रामा पतिक विचारोंसे जुदा है ! वह सोंपो, उनकी आरती उतारने के लिए दूसग प्रबन्ध यहाँ तक तो सहमत है कि महागजका पूर्ण सत्कार किया जा सकता है, जो मेरे प्रभावके सबब भी हो। मगर यह माननेको तैयार नहीं, कि सत्कारकी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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