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________________ २६६ पूर्णता उसी पर निर्भर है ! वह सुन्दरी है - परमासुन्दरी ! दुर्लभ-सौन्दर्य ने प्राप्त है, और वह जानती भी है - खूब अच्छी तरह, कि सौन्दर्य एक तेज मदिरा है, वह आँखोंके द्वारा हृदय में उतरती है ! और उसका नशा - घन्टों नहीं, वर्षोंतक, जावनांनतक भी नहीं उतरता ! वह इरादतन ही नहीं, अन जाने भी चढ़ जाता है । अच्छे चारित्रवाला भी उसका शिकार हो जाता है ! अनेकान्त पर यह सब वह महाराजको समझाए कैसे ? वह जो भक्ति में अपने विवेकको भुलाए बैठे हैं ! नीति में कहा है – ' अपने बलवान्‌को, अगर तुम्हारे पास कोई सुन्दर वस्तु हो तो उसे मत दिखाओ !' - चन्द्राभाने अपनी बातको, न तिकी आड़ लेकर वीरसेनकी स्वामि भक्तिकं मुकाबिले में खड़ा किया। 'बीहठ श्रजकी चीज नहीं, बहुत पुरानी है ! देखो, तुम व्यर्थ ही महाराज मधुकी महानता पर हमला कर रही हो ! जरासा रूप पाकर तुम्हें अहंकार हो गया है ! नहीं, जानती – महाराज के यहां तुमजैसी सैकड़ों दासियां आंगन बुहारा करती हैं !' - वीरमेन ने इच्छा के विरुद्ध रानीको बोलते देखा तो वीझ उठे ! विरक्त स्वरमें कठोरता व्यक्त करने लगे ! [ वर्ष ४ टाला जाना पत्नीत्वका नाश था, जो उसे इष्ट नहीं था- किसी भाव भी । सामने मजा हुआ आरतीका थाल रखा था । चुप, उठी और थाल लेकर चलदी ! वीरसेनका मन मारे खुशी के विव्हल हो उठा ! इतनी देर बाद स्त्रीहरुको ठेलकर, कामयाबी जो हामिल कर पाए थे ! कम बात थी यह ? X स्त्री अपने जीवन में दो चीजों को ज्यादह पसन्द करती है - प्रेम और सम्मान ! पर, चन्द्राभाको रसेन इस वक्त एक भी न मिली ! उसे दुग्ख तो बहुत हुआ, अपने अपमानका पतिकी विरक्तनात्रा और इन दोनोंसे भी ज्यादह इस बातका कि उसका भोला, अन्धभक्त पति भविष्य मे निश्चिन्त हो बैठा है ! विरोधी विचारोंका सुनना भी पाप समझता हैं। पर, निरुपाय थी ! पतिका आदेश जो था ! उसे X X .X [ २ ] बहुतबार ऐसा होता है-कि बात मनमें कुछ नहीं कि सामने आई ! आशंका, आशंका न रह कर भय बनी ! पर, वीरसेन जरा भी न समझे कि कुछ हुआ है ! दोनोंने मिलकर आरती की खूब खुशी-खुशी ! और लौट आए । लेकिन चन्द्राभा कोशिश करने पर भी यह न भूल सकी कि महाराज मधु उसके ऊपर मोहत हो गए हैं ! आरतीके वक्तकी भाव-भंगी उसे अब भी याद है ! ऐसी याद है जैसे पाषाण पर आंक दी गई। हो ! जो मिटेगी नहीं । उसने एकान्त में पतिसे कहा - ' -'देवा कुछ ?' वह बोले - 'क्या ? नहीं तो, मैंने कुछ नहीं देखा !' 'मैंने कहा था, न ? वही हुआ - आपके महाराज का मन स्थिर नहीं रहा है। वे मेरी ओर बुरी निगाह में देख रहे थे ।' - चन्द्राभाने दबी जबानसे, दबे शब्दों में कहा और देखने लगो मुँहकी और, यह जानने के लिए कि इसका असर क्या होता है ? वीरसेन हूँ । फिर क़रीब क़रीब हँसते हुए ही बोले - 'खूब ! अरे, तुम्हारे मनमें तो 'वहम' घुम गया है ! बेजा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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