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________________ २८४ अनेकान्त कहते हैं । कहावत है - एक बार महर्षि वेदव्यास सूर्योदय के पहले गङ्गास्नान के लिये गये । उस समय कुछ कुछ अँधेरा था इसलिये उन्हें सन्देह हुआ कि जब तक मैं अशुचि बाधामे निमटनेके लिये अन्यत्र जाता हूँ तब तक सम्भव है कोई मेरा कमण्डलु ले जावे- ऐसा सोच कर वे अपने कमण्डलु पर बालूका एक ढेर लगा गये । वे समझे थे कि हमारे इस कामको किसीने नहीं देखा है; परन्तु पीछेसे आनेवाले एक दो सज्जनों ने उनके इस काम को देख लिया था । देखनेवालोंने सांचा कि गंगा तीर पर बालूका ढेर लगानेसे पुण्य प्राप्ति होती है; यदि ऐसा न होता तो व्यासजी ढेर क्यों लगाते ? थोड़ी देर बाद गंगाके तीर पर बालू के अनेक ढेर लग गये । व्यासजी जब लौटकर ते हैं तो भूल जाते हैं कि मेरा कमण्डलु किस ढेर में है। दो चार ढेर देखनेके बाद वे बड़े निर्वेदके साथ कहते हैं कि [वर्ष ४ से अधिक रंग जमा रखा है। पीपलमें, बड़में, नदीमें, नालेमे, घर में, तालाबमं, जहाँ देखा वहाँ देव ही देव दिग्बाई देने लगे हैं। लोग अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनकी पूजा-भक्ति आदि करते हैं, वरदान मांगते हैं। मौमे एक दोका सौभाग्यसे यदि अनुकूल फलकी प्राप्ति होगई तो वे अपनेको कृतकृत्य मानने लगते है, यदि नहीं हुई तो देवको नाराज मानते हैं । यह सब देवमूढ़ता है । सम्यग्दृष्टि विचारता है कि जो देव स्तुति करनेसे प्रसन्न और निन्दा करनेमें नागज़ होता हो वह देव ही नहीं है। यदि हमारे अच्छे भाव हैं तो हमे फलकी प्राप्ति अपने आप होगी। किसीके देन न देनेंस क्या हो सकता है। इसलिये वह गंगी द्वेषीकां नहीं पूजता । पृजना है तो एक वीतराग सर्वज्ञ देवको । जिन्हे न स्तुनिसे प्रेम है और न ही निन्दामे अप्रसन्नता । जैनधर्म तो यहां तक कहता है कि जो वीतराग देवकी भी किसी भौतिक वस्तु पानेके लोभसं पूजता है वह मिथ्यादृष्टि है । वह भक्ति नहीं है वह तो एक प्रकारका सौदा है। निष्काम भक्ति के सामने सकाम भक्तिका दर्जा बहुत तुच्छ है । गुरुमूढ़ता - नाना वेषधारी गंजेड़ी भंगेड़ी आदि गुरुश्रोको विवेकरहित होकर पूजते जाना गुरुमूढ़ता है । सम्यग्दशन बतलाता है कि जिसे तुम पूज रहे उसकी कुछ परीक्षा भी तो करलो, उसमें कुछ अहिंसा और सत्य भी है या नही । खेदके साथ लिखना पड़ता है कि आज भारतवर्ष में इसी गुरुमूढ़ना के कारण अनेक लुच्चे-लफंगे पुज रहे हैं और सच्चे साधु कष्ट उठा रहे हैं । गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः 1 बालुकापुञ्जमात्रेण गतं मे तानभाजनम् ॥ अर्थात - लांक अनुकरणप्रिय है - सिर्फ देखा देखी करता है - उसमें सचाई नही है - देखो न ? बालूका ढेर लगाने मात्र से मेरा कमण्डलु गायब होगया । पर्वत पर गिरना, नदियोंमें डूब मरना, सती होना आदि स+ लोकमूढ़ताएँ हैं । सम्यग्दृष्टि जीव अपने ज्ञानसे इनमें सत्यकी खोज करता है, उसे जिनमें सत्य प्रतीत होता है-सचाई मालूम होती है— उन्हें ही करता है, बाकी सब लौकिक मान्यसाओं को छोड़ता जाता है। देवमूढ़ता - अभागं भारतवर्ष में इस मूढ़ताने सब आठ मद अपने आपको बड़ा और दूसरे को तुच्छ समझना
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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