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________________ किरण ४] रत्नत्रय-धर्म २८५ 'मद' है वह आठ तरहका होता है-१ ज्ञान, २ पूजा की कीमत एक लाख रुपये हैं। जौहरीकं वचन सुनते (प्रनिष्ठा), ३ कुल ( पितृपक्ष ), ४ जानि (मातृपक्ष). ही दरिद्र मनुष्य आनन्दसे पछलने लगा। जिसे वह ५ बल, ६ मम्पस, नप और ८ शरीर । तुकछ पदार्थ समझ रहा था वही एक महामूल्यवान रल था । इसी प्रकार मिध्यादष्टि जीव अपन जिम मम्यग्दृष्टिजीव अपने आपको लघु समझ कर आत्माको तुच्छ पदार्थ ममझकर सुबकी चाहम इधर हमंशा महान बननेका प्रयत्न करता है । मैं घड़ा है उधर घूमता फिरना था वही जीव सम्यग्दर्शन होने और तम छोटे हो, जब तक यह भावना रहतं है नब पर अपने आपी कीमत समझने लगता है और तक सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । मम्यग्दर्शन विनय- उम उम हालतमे जा सुम्ब प्रान हाना है वह वचनोंसे नहीं कहा जा सकता। वान जीव ही प्राप्त करमकने हैं। मम्यग्दर्शन आत्माका गुण है, वह हमेशा प्रान्मा मम्यग्दर्शनकी पाय पहिचान में ही रहता है । परन्तु इसका विरोधी मिध्यान्वकर्म जिम जीवको मम्यग्दर्शन हो जाता है उसके जन नक आत्मामें अड्डा जमाये रहना है तब तक वह प्रशम, मंग, अनुकम्पा और श्राम्निक्य ये चार प्रकट नहीं हो पाता । ज्यों है इम जीवका सम्यग्दर्शन गुण प्रकट हो जाते हैं। इनका मंक्षिम स्वरूप इस प्राव होता है न्यों ही इमकं नीत्र क्रांध, मान, माया. प्रकारलाभ प्रादि कषायें अपने आप शान्त होजाती हैं। १ पशम-गग द्वेष आदि कपायाम चिलकी वृत्ति हट जाना। यद्यप यह पर्व मंकारन विषयों में प्रवृत्ति करता है. मंग-संमाके दाग्यमय वातावरगाम भय उत्पम नथापि वह उनको अपना कर्तव्य नहीं समझना हो जाना। उनम अपने आपको भिन्न अनुभव करना है। जिम ३ अनुकम्पा-दीन दुम्वी जीवांका दबकर इदयमें प्रकार धाय अपने मालिककं पुत्रका अपने पुत्र जैमा दया उत्पन्न हो जाना। ही पालन • पापणा करनी है-उम्मकं सम्ख - दुःखमें ४ आस्तिक्य-देव, शास्त्र, गुरु, बन नथा परलोक अपने आपको सुखी दुग्वी माननी है। परन्तु भीतर आदिका विश्वाम होना । सं उसकी अन्तगत्मा कहती है कि यह तेग पत्र नहीं जिस पुरुषकं जीवनमें ये चार गुण प्रकट हो है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष भी संमारके ममम्न चुके हों उस सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये । यह स्थूल पहिचान है । अन्तगत्माकी गनि मर्व जाने । कार्य करते हुए भी उन्हें अपना नहीं समझता। पाप । सम्यग्दर्शनका प्रभाव को पुराय ममझकर करना और पापका पाप ममझकर करना इन दोनोंमें प्रकाश और अन्धकारकी तरह ___ जिम जीवको सम्यग्दर्शन होजाता है भले ही वह किमी भी जातिका क्या न हो परन्तु पादरणीय भारी अन्तर है। मममा जाने लगता है । सम्यग्दृष्टि जीव मर कर सम्यग्दर्शन सुखका कारण है नरक और पशु योनिमें उत्पन्न नहीं होता । जनम एक दरिद्र मनुष्यक पास बहुत कीमती रत्न था,, . मनुष्य ही होता है और हर एक तरहम सुखी रहता है। मम्यग्दृष्टि जीव थोड़े ही ममयमें संसारके दुःखों पर उसे वह मामूली पदार्थ समझता था । एक दिन से छटकाग पाजाता है। सम्यग्दर्शन चारों गतियोंमें किमी जौहरीने उससे कहा कि यह ग्ल है और इस प्राम किया जा मकना है। (अपूर्ण)
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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