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________________ किरण ४ ] ६८३ और यक्तियोंस नहीं हो सकता हो ऐस सूक्ष्म आदि जीवको समयानुकूल उपदेश देकर, अपनी संवाएँ पदार्थोके सद्भामें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना समर्पित कर तथा भाजीविका मादिकी व्यवस्था कर अथवा अपने श्रद्धानसे विचलित करने वाले जीवन पुनः उसी सत्यधर्ममें स्थिर करना स्थितिकरण मरण आदिके भयसे रहित होना मो निःशङ्कित अङ्ग अङ्ग है। है। इस प्रण के धारक जीवके आगे यदि कोई पिस्तौल वात्सल्य-संसारकं समस्त प्राणियोंस मैत्री भाव नानकर कहे कि 'तुम अपने स्वपर भेदविज्ञान या रखना उनके सुख-दुःखमें शामिल होना तथा धर्मात्मा श्रद्धानको छोड़ दो नहीं तो अभी जीवन-लीला जीवोंस गां-वत्मकी तरह अक्षुगण प्रेम रग्बना समाप्त किये देना हूं' तो भी वह अपने श्रद्धानसे 'वात्सल्य' अङ्ग है। विचलित नहीं होगा । मर्वथा निःशङ्क-निर्भय रहेगा। प्रभावना-लोगोंके अज्ञानको दूर कर उनमें सचे निःकांक्षित-मम्यग्दर्शन धारणकर भाग सामग्री ज्ञानका प्रचार करना, जिमम दुसरे लोग सत्य धर्म की चाह नहीं करना सो निःकांक्षित अङ्ग है। सम्य- की ओर आकृष्ट होमके हम 'प्रभावना' अङ्ग कहते हैं। ग्दृष्टि जीव यही सोचता है कि संमारके विषय सुग्व विचार करने पर मालूम होता है कि इन आठों कर्मपरतंत्र हैं, नाशवान हैं, दुःग्वोंसे व्याप्त हैं और अङ्गोंसे सहित सम्यग्दर्शनमें ममस्त संमारका पापके बीज है; इसलिये उनमें आस्था तथा आसक्ति कल्याण मंनिहिन है । पक्षपात गहित जैनेतर सज्जनों रखना ठीक नहीं है। का भी यह अनुभव -यदि ममारके जीव अग्रांग निर्विचिकित्मा-ग्लानिको जीतना- खामकर सम्यग्दर्शनका धारण कर लें तो मंसारकी अशान्ति मुनि आदि धर्मात्मा पुरुषों के शरीरमें रोग आदि होने क्षण भग्में शान्त हो जाये और सभी और सुम्बपर किसी प्रकारकी ग्लानि नहीं करना और अपना शान्तिकी लहर नज़र आने लगे। कर्तव्य ममझकर निःस्वार्थ भावसं उनकी सेवा करना तीन मूढ़ताएं निर्विचिकित्सा अङ्ग है। लोकमूढ़ना, देवमृढ़ता और गुरुमूढ़ता, ये तीन अमृदृष्टि-विवेकस काम लेना, अच्छे बुरेका मूढ़ताएँ-मुर्खताएँ कहलाती हैं । इनके वश होकर विचार कर काम करना और दूमगेका अनुकरण कर जीव अत्यन्त दुःख उठाते हैं। मिथ्यारूढ़ियोंको स्थान नहीं देना 'अमूढदृष्टि' अङ्ग है। लोकमूढ़ता-यह मानी हुई बात है कि संसार ___ उपगृहन-दूसरेको बदनाम करनेकी इच्छास के नमाम जीवोंम ज्ञानकी न्यूनाधिकता देवी जाती दूसरेके दोषोंको प्रकट करना-उसकी निन्दा न है। जिन्हें ज्ञान कम हाना है वे अपने अधिक करना । हो सके तो प्रेमसे समझाकर सुमार्ग पर ज्ञानवालेका अनुसरण करते हैं । अधिक ज्ञानवाले लगा देना 'उपगृहन' अङ्ग है। इस अङ्गका दूमग किमी परिस्थितिसं मजबूर होकर कोई काम शुरु नाम 'उपबृंहण' भी है, जिसका अर्थ श्रात्म गुणोंकी करते हैं, बादमें अल्पज्ञानी उनकी देग्वा देवी वह वृद्धि करना है। _ काम शुरु कर देते हैं और परिस्थिति बदल जाने पर स्थितिकरण-सत्य धर्मस विचलित होते हुए भी वे उसे दूर नहीं करते। ऐम कार्योको 'लोकरूढ़ि'
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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