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भनेकान्त
[वर्ष ४
के ममक्ष उपस्थित हो जायें । इसके लिखनेमें भी जाती थीं और लोग उन्हें पढ़ सुनकर मुग्ध हो मउजनात्तम प्रो० हीगलाल जैन और डा० ए० एन० जाते थे । स्थानाभावकं कारण रचनाओंके उदाहरण उपाध्यायकी सूचनाओं और सम्मतियोंस लेग्वकने देकर उनकी कला और सुन्दरताकी चर्चा करनेस यथेष्ट लाभ उठाया है।
विग्त होना पड़ा। १-अपभ्रंश-साहित्य
२-कुल-परिचय और धर्म महाकवि पुष्पदन्त अपभ्रंश भाषाके कवि थे । इस
पुष्पदन्त काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे । उनके पिता भाषाका माहित्य जैनपुस्तकभंडारोंमें भग पड़ा का नाम केशवभट्ट और माताका मुग्धा देवी था। है। अपभ्रंश बहुत समय तक यहाँको लोकभाषा
___उनके माता पिता पहल शैव थे, परन्तु पीछे रही है और इसका साहित्य बहुत ही लोकप्रिय रहा किसी दिगम्बर जैन गुरुक उपदेशामृनको पाकर जैन है। गजदरबागेमें भी इसकी काफी प्रतिष्ठा था। हां गये थे और अन्तम उन्होंने जिन-मंन्यास लेकर गजशेग्यरकी काव्य-मीमांमास पता चलता है कि
शरीर त्यागा था। नागकुमारचरितकं अन्तमें कविन गजसभाओं में गज्यामनकं उत्तरकी ओर संस्कृत और और लोगोंके साथ अपने माता पिनाकी भी कवि, पूर्व की ओर प्राकृत कवि और पश्चिमकी और
कल्याणकामना की है और वहाँ इस बातको स्पष्ट अपभ्रंश कवियोंको स्थान मिलता था। पिछले २५-३० किया है । इममें यह भी अनुमान होता है कि वर्षांस ही इसकी बार विद्वानों का ध्यान आकर्षित कवि स्वयं भी पहल शैव होगे। हुआ है और अब ता वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंकी
कविकं प्राश्रयदाता माहामात्य भरतन जय उनसे जननी होने के कारण भाषाशास्त्रियों और भिन्न भिन्न
गहापुगणकं रचनका आग्रह किया, तब कहा कि भाषाओंका इतिहास लिम्वनवालों के लिए इस भाषाके
तुमने पहले भैरवनरेन्द्रको माना है और उमको माहित्यका अध्ययन बहुत ही आवश्यक हो गया है।
पर्वतकं ममान धीर वीर और अपनी श्रीविशेषसे इधर इम माहित्यके बहुतम प्रन्थ भी प्रकाशित हो
सुरेन्द्रका जीतनेवाला वर्णन किया है । इससे जो गये हैं और हो रहे हैं। कई यूनीवर्मिटियोंने अपने
मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है, इम समय उसका यदि पाठ्य-क्रममें अपभ्रंश ग्रंथोंका स्थान देना भी प्रारंभ
तुम प्रायश्चित्त कर डालो, ना तुम्हारा परलोक सुधर कर दिया है।
पुष्पदन्त इमभाषा एक महान कवि थे। उनकी * मिवभत्ताई मि जिणसण्णामें, वे वि मयाई रियणिण्णासें । रचनाओं में जो भोज, जो प्रवाह, जो रस और जो बंभणाई कासवरिसिगोत्तई, गुरुवयणामयपूरियसोत्तई ।
मुद्राएवी केसवणामई, महु पियराइं होतु सुहधामई। सौन्दर्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाषापर उनका
[मंस्कृत-छायाअसाधारण अधिकार है। उनके शब्दों का भंडार
शिवभक्तौ अपि जिनसंन्यासेन द्वौ अपि मृतौ दुरितनिर्णाशेन । विशाल है और शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनोंसे
ब्राह्मणो काश्यपऋषिगोत्री गुरुवचनामृतपूरितश्रोत्रौ । ही उनकी कविता समृद्ध है। उनकी मरस और मुग्धादेविकेशवनामानौ मम पितरौ भवता सुखधामनी ॥] मालकार रचनायें न केवल पढ़ी ही जाती थी, वे गाई 'गुरु' शब्दपर मूल प्रतिमें "दिगम्बर' टिप्पण दिया हश्रा है।