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होगए - भूल गए सारी राजनीति !
झल्लाकर बोले- 'अच्छा, इतनी हिम्मत ?'
अनेकान्त
जल्लाद चुन ।
' ले जाओ, इसे भी प्राण दण्ड दो ! कृतन्न ! नीच !! चाण्डाल !!!' -- मम्राटने हुक्म दिया | X X X जलचरोंके देशमें
अथाह जलाशय में लहरें हिलोरें ले रही थीं। समीपस्थ — नीरव वातावरण, ऊर्मियांकी गम्भीरध्वनि से भंग हो रहा था ! असंख्य जल-चर श्रानन्द निमग्न हो तैर रहे थे !
स्थान पाया।
...कि एक जकड़े हुए अपराधीका बेवश शरीर aah बीच में गिरा । सबमें, एक नई उमङ्गन "और बातकी बातमें उस अभाग व्यक्तिको शरीर जलचरोंकी दाढ़ोंके नीचे पड़कर पेटमें समा गया । भोज्य वस्तु नत्म होचुकी ।
यह था - राजपुत्रका प्राण दण्ड ! क़ानूनकी तामील ।
तट पर खड़े हुए जन-दलने एक चीत्कार किया --' श्रोह !' जैसे मनुष्यता कराह उठी हो ।
[ वर्ष ४
'बांध इसे भी ।' हुक्म हुआ और उसी वक्त हुक्मकी तामील मामनं थी ।
'क्या अब भी तू अपने हठसे बाज न आएगा ?' --सवाल हुआ।
'हरगिज़ नहीं ! आज मैं हिंसक हूं। मुझे इस पर गर्व है। मैं आज हिंसा नहीं कर सकता - चाहे इसके लिये मुझे मौत से भी बड़ी सजा दीजाय ।'यह जल्लादका खुला निर्णय था । 'डाल दो, इमे ।'
श्रह ! उसी अगाध जलाशय में जल्लादका बँधा हुआ बेवश शरीर डाल दिया गया। जन-दलसे फिर एक जोर की चिल्लाहट हुई ।
पर, यह क्या?
क्षणभर बाद——सब शान्त ! जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दुनियाँका रिवाज जो यही है।
अब बधिककी बारी थी । सिपाहियों की सतर्कतामें वह एक और खड़ा था। मुँहपर उसके विषाद न था, दृढ़ता थी । हृदय में संकोच, भय, पश्चाताप न था, निर्भयता थी । वह खड़ा था —– प्रसन्नचित्त ! जैसे परीक्षा में उत्तीर्ण होने की इच्छा में खड़ा हो ।
यह क्या रहा है - जादू ?
सबने देखा, खुली आँखों देखा —– जल्लाद, हाँ, वही पतित - तिरस्कृत - अछूत सिंहासनपर विराजमान है। देवगण उसकी पूजा कर रहे हैं।
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X सम्राटने सुना, शहर की जनता ने सुना, जिमने सुना-दौड़ा आया । श्रद्धासे उसका मस्तक झुक गया—- प्रतिज्ञा-पालक के चरणों में ! अहिंसा के पुजारी की महत्ता के सामने !
सम्राटने पैरोंमें मुकुट नवाते हुये, हाथ जोड़े, क्षमा माँगी । कहा -- 'तुम पतित नहीं, पतित मैं हूँ, जो प्रभुना के मदमें आकर तुम्हारी धार्मिक प्रतिज्ञा तुड़वाना चाहता था । तुम पूज्य हो ! आदर्श हां !! मुझे क्षमा करो।
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