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जैन-धर्मकी देन
(ले०--प्राचार्य श्री क्षितिमोहनसन)
कत वैदिक धर्म इन्द्र-चन्द्र-वायु श्रादि देवताओंमें इसी कारण एक हिसाबसे जैन-धर्म के माथ बंगालका "डी श्राबद्र था । वह स्वर्ग - मुग्व की प्रार्थनामें रत था, बहुत पुराना योग ।। बौद्धधर्म ग्रहण करने के पूर्व और उमय. यजम माना । जन था । उपनिषदोंके बंगाल में जैनमतका ही प्रादुर्भाव था। अब भी मानभूम, युगमं देग्वा गया कि मनुष्य बाहर के देवताको स्वोज बॉकुड़ा प्रभृति स्थानाम सगक-जाति जैन श्रावकोकी ही छोडकर अपने अन्नग्में ही अन्वेषगा - करने लगा है। तब अवशेष है । जेनीकी उमी पुरातन भूमि--बंगदेश--में पुन: हिमामय यन छोड़कर उमका चिन श्रमिात्मक ध्यान- जन-धर्म सम्मानित और सस्कृत ।। भारतीय धर्म-माधनाके धारणाकी पोर झुकने लगा। म्बर्ग-मुम्बकी अपेक्षा बद सैनम जैन-धर्मका जो अमूल्य दान है, दम बंगदेशमं भी वैगग्यानित मुक्ति के लिए व्याकुलना अनुभव करने लगा। उसका उपयुक्त अनुसंधान होना चाहिए।
मंधान करने पर पता चलेगा कि अहिमा-प्रार्थनाको भारतीय धर्मके इतिहासमें श्रदमा, निष्कामता, मुक्निक मल में बहुन-मा कार्य महागुरु महायोग श्रादि पथ- मनोविजय, ध्यानपरायणता, इन्द्रिय जय, वैराग्य, मुक्तिप्रदर्शकगगा कर गए हैं। प्राचीन महागुरुयोकी शिक्षा, माधना प्रभृति बड़े-बड़े सत्य जैन-माधकीक है। दान-स्वरूप गुममे शियकी श्रीर, महाम ही चला करती थी। प्राप्त हुए हैं। पुगतन धर्म में मनुष्य देवताके माइम जैनाचार्यों में भी यह मब तस्योपदेश इसी तरह क्षबानी अाच्छन्न था: जैन साधनाने दिग्बलाया कि मनुष्यका धर्म चलता रहा। जैन धर्म के लिग्विन उपदेशांके युग में सबसे उसीके अन्तग्म है । मानव-साधनाम मानव ही महत्तम पहले श्रावली भद्रबाहका नाम लिया जा मकता है। सत्य है. देवता नहीं। महामानवक चरणाम ही मानव ग्लनन्दी-रांचन 'भद्रबाहुचरित' और हरिण-कृत प्रणत हो, देवताके चरणोमें नहीं । मानव और मानव'वृहत्कथाकोष' से जाना जाता है कि भद्रगहु का साधनाको इस धर्मने एक अपरूप(अपूर्व)महत्व दान किया। जन्मस्थान पुण्ड्रवर्द्धन था। ऐतिहामिकाको यह बतानेकी यूरोपके पालिटिविस्ट लोग दावा करते हैं कि मानव-महत्वको श्रावश्यकना नदी कि पुण्डबर्द्धन उनर-बंगमे स्थित है। उन्होंनेही सबसे पहले सम्मानित किया है, किन्तु यथार्थन:
श्रुनकेवली भद्रबाहु के चार शिय थे। इनमें से एकका वही दावा भारतकी बहु-पुरातन जैन माधना कर सकती है। नाम गोदामगणी था । गोदामगीकी शिध्य-सन्तानकी अहिंसा,बैगग्य, निष्काम धर्म प्रभृनि बड़े-बड़े तत्व-प्रचार चार शाग्वाएँ थी-प्रथम नामनीतिया, द्वितीय कोडी करके ही जैन माधकगण निश्चिन्न नहीं हो रहे । युग-युगमें, वरिमिया, · तृतीय पाण्डबद्धनीया और चतुर्थ दामी काल-काल में उन्होंने अपनी साधनाको उम ममयके लिए ग्यबडिया। ये चारी ही शाग्वार बंगदेशकी है। हम उपयोगी किया था। इसी जगह उनका महत्व ,इमी विषयमें मैंने अपने एक ग्रन्थम विस्तृत श्रान्नाचना की है, जगह उनकी प्राणशक्ति का परिचय है। मैंने पहले जैन जो अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है।
धर्मकी प्राणशक्तिके विषयमें 'प्रवासी', वैशाग्य, १३४१