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________________ ५५२ भनेकान्त [वर्ष ४ बंगाब्दमें एक प्रबन्ध लिखा था, जिसे आप लोगोंमें से महापुरुष थे । विद्ववर श्री हीरालाल जैन महाशयने किसी-किमीने देखा होगा। दिखलाया है कि मुनि गममिह-कृत 'पाहुड दोहा' प्राय: प्राचीन साधनाओंको युग-युगमें कालोचित करनेका ही १००० ईस्वीके अासपासकी रचना है। 'पाहड़ दोहा' नाम है रिक्रामेंशन । हेस्टिंग्न-सम्पादित विख्यात 'एन्साइक्लो- अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। जैन गुरुगण संस्कृतके पीडिया श्राफ़ रिलीजन्स एण्ड एथिक्स' ग्रन्थकी विषय-सूची मोहमें आबद्ध नहीं थे। देवनेसे ही मालूम होगा कि रिफार्मेशनके सम्बन्धमें लिखते मिस्टिक अर्थात् मरमी कबीर प्रभृति में जो मब भाव हुए केवल वीष्टीय रिफार्मेशनका उल्लेख किया गया है। मिलते हैं, 'पाहुड़ दोहा'म प्राय: वे सभी हैं। 'पाहुद्द जैन धर्म के रिफाशनका कोई उल्लेख नहीं है। प्रथच दोहा में से कुछ थोड़े-से यहाँ दिखलाये जाते हैं। युग-युगमे जैन साधनाने विस्मयकर प्राणशक्तिका परिचय शास्त्रबद्ध दृष्टि-भ्रान्त पंडितोंकी ओर लक्ष्य करके मनि दिया है। मेरी निजी गवेषणाका विषय विशेष करके रामसिंह कहते हैं :-- मरमी साधना तथा इन्हीं सब रिफ़ार्मेशनकी बाते ही रही पंडियपंडिय पंडिया कणु छडिबि तुस कंडिया। हैं। इस कारण मैं उसी विषय पर कुछ कुछ बोल मकता अत्थे गथे तुट्ठोसि परमत्थु ण जाणहि मूढो सि(८५) है । यहा ज्ञानी और गुणी बहुत लोग उपस्थित है, यहा अर्थात्--'हे पंडितोके पंडित, तू शस्य छोड़कर भूमी कट मुँह खोलने का अधिकार मुझे नहीं है। तब भी बोलनेके कर रहा है: न कितना बड़ा मुर्ख है कि परमार्थ न जानकर । समय मुझे वही सब बोलना होगा, जिसे लेकर मैंने चिर- अ ग्रन्थके अर्थसे दी संतुष्ठ रह रहा है। जीवन काट दिया है। बहुइयं पढियइँ मूढ पर तालू सुक्कइ जेण । __ मैंने प्रधानत: आलोचना की है--भारतके मध्य-युगको एक्कुजि अक्खरुतं पढहु सिवपुरिगम्मइजेण ॥(९७) लेकर। पहले सभी समझते थे कि कबीर मध्य-युगके -पढ़-पढ़कर, अरे मूर्व, तेरा नालू सूरव गया है, रिफार्मेशनके श्रादिगुरु थे। उन्होंने धर्मके बायाचारीको तब भी तू मूर्ख ही बना है। ऐसा मात्र एक अक्षर पट्ट त्यागकर उसके मर्मकी बात कही थी। किन्तु अब देखा देव, जिससे शिवपुरी जा सकता है।' जाना है कि जैनमाधक लूकाने १४५२ खीष्टान्द में गुजरातमे अन्तो णस्थि सुईणं कालो थोत्रो वयं च दुम्मेहा। अपना लहामत नामक रिफार्मेशन-मन प्रचारित किया। तंणवर सिक्खियव्वं जिंजरमरणक्खयं कुहि ।।(5) इममें बाह्य भेद, प्राचार, पूजा आदिकी व्यर्थता, बाह्य --शास्त्र अनन्त हैं, काल म्वल्प है, अथच हम लोग क्रिया-कर्मकी हीनता अच्छी तरह ममझाई गई है। इसके दुर्मेधा है, अर्थात् हमार्ग बुद्धि और धारणाशक्ति परिमित प्राय: २०० वर्ष बाद, अर्थात् १६५३ ईसवीमें, दुन्डीया है। इसीलिए जिससे जरामरण क्षय होत हैं, इतनी विद्या या स्थानकवामी मन प्रवर्तित हश्रा । यूरोप में भी तब मीग्व लेनी चाहिए। वही यथेष्ट है।' प्यूरिटन मृवमेंट चल रहा था। तारण-गंथ आदि जैन अक्खरचडिया मसिमिलिया पाढतागय खीण। साधनानोमें भी ठीक ऐसे ही रिफार्मेशनकी बातें हैं। एक्कण जाणी परमकला कहिं नग्गड कहिं लीण ॥(१७३ ___ अब मालूम हुआ है कि महात्मा कबीर प्रभृति प्रवर्तित --'स्याहीके अक्षरोंमें लिखे हुए ग्रन्थ पढ़ते पढ़ते क्षीण मतवादके श्रादिगुरुश्री मुनि रामसिंह नामक एक मुख्य हो गया, तथापि कहाँ उत्पत्ति है और कहाँ लय, इस
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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