________________
जैनधर्मको देन
५५३
परम मर्मका मंधान नहीं गया।'
श्रारामकी नींद सोने जा सकते हो।' ___ यह विडम्बना देखकर मुनि राममिह कहते हैं:--- दयाविहीएड धम्माणाणिय कह विण जोड। ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करंति । बहुएं सलिलविरोलियई करु घोप्पडाण होइ॥(१४७)
गुरुहुं पसाएं जाम ण वि देहह देउ मुणति ।। (८०) --हे ज्ञानी योगी, दयाहीन धर्म असम्भव है। जलमें अर्थात्--'ये सब ग्रन्थ, व्यर्थ-तीर्थ-यात्रा और नाना धूर्तपना कितना भी हाथ चलाओ, वह योही चिकना नही हो छोड़कर सद्गुरुकी शरण ले । अन्तरस्थित देवताको मकता।' गुरुको कपासे जान ले।
मनि राममिह और भी कहते हैं:-- लाहिं माहिउ ताम तुहुं विसयहं सक्ख मुणेहि ।
कासु समाहि करउ को अंच। गुरुहुँ पसाए जामण वि अविचल बोहि लहेहि ॥(८१) छोपु प्रकोपु मणिवि को बंच ॥ --'गुरु-प्रसादमे जितने दिन अविचल बोध प्राप्त नहीं
हल महि कलह केण सम्माण। होता, उतने दिन इन्हीं सब विषयोंमें मन मुग्ध होकर सुग्वोके जहिं जहिं जोवनहिं अप्पाणउ।। (१६९) पाशमं आबद्ध रहता है।
-क्या नृथा यह विद्वष और कलह, यह मिथ्या स्पृश्याजं लिहिण पुच्छिकहब जाइ।
स्पृश्य विचार किया जाय ? किसे त्याग किया जाय ? कहियउ कासु विउ चित्ति ठाइ।। किसकी पूजा-समाधि करे ? जहा देवता हैं, वहां अपनी ही मह गुरुउबरसें चित्ति ठाइ। श्रात्माको विगजमान देखता हूँ।'
तं तेम धरतिहिं कहिं मिठाइ ॥ (१६६) अग्गई पच्छई दहदिहहिं जहिं जोवउ तहि सोह। --'जिसे लिखा नहीं जाता, पृछा नहीं जाना, कहनेमे तामहु फिट्टिय भत्तडा अवसुण पुच्छर कोइ ।।(१७५) भी जिसमें मन स्थिर नहीं होता, ऐमा तत्त्व गुरुके उपदेशम -.'यागे पीछे दमो दिशामें जहाँ भी देखता हूँ,
में प्रतिष्ठित होता है। पीछे वही तत्त्व सबमे नहा वही विराजमान है। इतने दिन बाद मेरी प्रानि स्फुरत हो जाता है।'
मिट गई। अब किसीम कुछ भी जानने पूछने के लिये ___गुरुका उपदेश मिलनेार ही जान पड़ता है कि नहीं है।' मर्ग-कामनाकी अपेक्षा निष्काम • मुक्ति श्रेठ है। दिमा इसके बाद उन्होंने ममझाया है कि बाह्य श्रानार
और दुनौति छोइनेसे ही मन शान्त हो जाता है । इमाम और चप द्वारा कुछ भी नही होना :-- मनि रामसिंह कहते है:
मप्पि मुक्की कंचुलिय ज विसु तं न मुण्ड। अवघड अक्खर जं जुष्पज्जा ।
भीयहं भान न परिहराइ लिंगग्गह' करेइ ।। (१५) अणु विकिपिएणार ण किज्जा ।। - 'भर्ष केंचुल छोड़ देता है, किन्तु विष नहीं छोड़ना । प्रायई चितिं लिहि मणु धारिवि । मुनि-वैप तो लेते हैं, किन्तु उनमें भेद-भाव कहो दूर
सोउ णिचिंतित पाय पसारिवि ॥ (१४४) हाना है ? --'अहिमामय भाव चित्तमें उत्पन्न करी । नानक भी प्रभितरचित्ति विमालियबाहिरिकासवण। अन्याय मन करो; चित्तमें यह स्थिर करके पाच मार कर चिति णिरंजणु कावि धरि मुबहि जेम मलण ॥ (६१)