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________________ ५५४ मनकान्त [वर्ष --'यदि अन्नरमें चित्त ही मलिन रहा, तब बाहरकी माक्खह कारणु एनडउ अवरई तंतु ण मंतु ।। (६२) तपस्यामे लाभ क्या होगा ? चित्त देकर विचित्र निरंजनको -'विषय-कपायांम जाते हुए मनको जिमने पकड़कर धारणा करो, जिससे चित्त की मलिनताम माक्त मिले।' निरजनक मध्यम स्थिर कर लिया, उसने मोक्षक हेतुभूत सयलु वि को वि तडफडइ सिद्धत्तणहु नणेण। कारणक' पा लिया । यही तो मोक्षका कारण है, तन्त्रसिद्धत्तणु परि पावियह चित्तहं णिम्मलयेण ।। (८८) मन्त्र नहीं । --'मद्धत्व के लिए मभी नादाने हैं, किन्तु चित्त निर्मल मनको संयत करना ती एक नेतिवाचक (Negative.) हानेपर ही मिद्धत्व प्राम होना है।' व्यापार है और उसे निरंजनके माथ युक्त करना पात्था पढणं मोक्खु कहं मणु वि असुद्धउ जासु ।(१४६) अम्तिवाचक ( Positive ) वस्तु है। इसी प्रास्तवाचक -'अशुद्ध मन लेकर पोथा पढ़ लेनेसे ही मुक्ति कहाँ योगी ही बात मुनि जी कहते है :मिलेगी? उम्मणि थक्का जासु मणु भग्गा भूवहिं चारु । तित्थई तित्थ भमंतयहं कि एणेहा फल हूव । जिम भावइ तिममंचरउण विभउरण विसंमारु॥(१०४ बाहिरू सुद्धउ पाणियहं अम्भितरु किम हूव ।।(१६२) मत पदार्थोम जिमका मन मुक्त होकर-उन्मन -तीर्थसे तीर्थान्तर तक भ्रमण करने का तो कुछ भी फल हाकार-चार हा उठा है, वह मर्वत्र स्वाधीन विहार लाभ नही हुआ। बाहर तो जल में शुद्ध हो गया, किन्तु अन्तरका करता है। उमं फिर न भय रहता, न समार ।' क्या हाल है? अवह गिरामइ पेसियउ सहोमइ संहारि ।। (१७०) तित्थई तित्थ भमंतयहं संताविज्जइ देहु। -'अक्षय, निरामय उमी धाममें प्रवेश करके मन श्राम अप्पें अप्पा झाइयई णिवाणं पर देहु ।। (१७८) ही मयत हाकर लयलीन हो जायगा।' --- 'तीर्थसे तीर्थ तक भटकते फिरने से केवल देह-मन्ताप हम अवस्था में पहुंचनेसे माधक के अन्तरस्थित देवता ही होता है। श्रात्माके भीतर अात्माका ध्यान करके अन्तरमं दीप्यमान हा उटते हैं। बाहर तीर्थ-तीर्थ और निर्वाण-पथमें पदार्पण करो।' मन्दिर-मन्दिरमें उन्हे खाजत नहीं फिरना पड़ता । 'पाहुड़ यही तो हुई मरमीकी माग्नम बात ! इमी मम्मे दोहा' में कहा है :मुनि राममिह कहते हैं : आगहिजइ देउ परममा कहिं गयउ । अप्पा सचर मोक्खपहु पहउ मूढ वियाणु ।। (७९) वीमारिजइ काई तासु जो सिउ सव्वंगउ ।। (५०) - 'श्रात्माही वास्तावक मुक्ति-7थ है; है मूढ, म - 'श्राराध्य देवता परमेश्वर कहो गए ? जी शिवस्वरूप समझ ले।' माङ्गव्यापी है, उन्हें किम प्रकार भुला दिया गया ?' मध्य-युगके मब माधकांने यही एक ही बात ना कही ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करंति । है कि मनमें ही मोक्षकी बाधा है. अर्थात् मनको जमने गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि देहहं देठ मुनि ॥(८०) मंयत कर लिया, मोक्ष उमके लिए महज लभ्य हो गया। -नाना बाह्य कुनीर्थोम भ्रमण और धूर्ताचार उनने मुनि गमसिंह भी कहते है:-- दिन ही चलना है, जितने दिन गुरुप्रमादसे देह-मन्दिरजेण णिरंजणि मणु धरिउ विसयकमायहिं जंतु। मियत देवताको जाना नही जाता।'
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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