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किरण १० ]
जल्लाद
लिये न जाऊँगा, तुझे तो बताना ही क्या, कि आज मेरा व्रतका दिन है। बाहरसे राजकर्मचारी आ रहे हैं, कह देना कि 'वह आज हैं नहीं, बाहर गये है !'समझी
और मैं काठ छिपा जा रहा हूँ !' 'ठीक है ।'- स्त्रीनं उत्तर दिया ।
वह काठ में जा छिपा ।
मिनिट भर बीता, कि सिपाहियोंका जत्था श्रा पहुँचा ।
'कहाँ गया ?'
'वे, आज हैं नहीं, बाहर गए है ।'
'अरे'! आजही उसे बाहर जाना था ! आज जो होता तो हजागेका माल हाथ न लगना ?' जत्थे के अधिनायकने राजकुमार के आभूषणों की ओर संकेत करते हुए कहा ।
'यह तो ठीक है !' - स्त्री हृदय में एक संघर्ष छिड़ा- 'कैमा अतुल अवसर है, हज़ारोंका माल ! हार-कुण्डल, कड़े, बाजूबन्द कितनीही चीजें तो पहने है - यह ! और कपड़े भी तो देखो, कितने क्रीमती हैं ? क्या करूँ ? ऐसा मौक़ा बार-बार तो मिलना नहीं ! फिर, यही तो अपना धन्धा है— अपराधीका कुल सामान ! चाहे, पाँचका हो या पचासका ! आज इतना धन ! क्या यों ही छोड़ दिया जाय ?'
'तू तो बहुत दिन देव रही हैं तू ही कहक्या इतना धन कभी भी मिला है, जितना यह आज है ?' - अधिनायक ने हामी भगनी चाही !
लाभ-लिप्याने स्त्री-हृदयपर काबू पा लिया।" 'मगर वह तो आज हैं नहीं । कहते हुए भी उसने चुपके से कांठेकी ओर उँगली उठा दी ।
ओफ़ । नारीके लाभी मन ।
दुसरे ही क्षण
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जल्लाद ठेके बाहर, सबके सामने खड़ा थाअपराधी की तरह |
'यह जालसाजी ? यह धोखा ?-- क्यों ? क्या विचार है, अब ?' - अधिनायक क्रोधके मारे थ धर हो रहा है।
'कुछ नहीं । जो हुआ वह ठीक। और जो होगा वह भी ठीक ही होगा'' जल्लादने गम्भीरतापूर्वक कहा। मुँह पर उसके एक अपूर्ण प्रसन्नता खेल रही था। आज उसके आगे व्रतकी रक्षा- अरक्षाका सवाल है. जीवन मरणकी समस्या है। लेकिन वह उसके लिये तैयार है । वह जानता है-यों पकड़े जाना उसके लिए शुभ नहीं है। पर, फिर भी वह सचिन्त्य नहीं, दृढ़ता जां साथ है प्रतिज्ञा पालन की। 'जानता है - इस धाबा जी का क्या फल होगा ?
चल ! महाराज के सामने ।'
'चला !'
-और वह निर्भय हा चल दिया ! स्त्री श्रवाकू !
देखनी भर रही, जब तक दिखाई देते रहे।
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४ )
'क्या चाहना है अब ?' - सम्राटनं पूछा । 'वैसी आज्ञा, जो पालन हो सके ।' यह जल्लाद का उत्तर था सीधा, स्पष्ट ।
' ले जाओ, अपराधीको बध करो। जो आज तक करते आये हो !'
'नहीं, इस श्राज्ञा का पालन आज नहीं होगा-महाराज !' लापर्वाहीक साथ जल्लाद बोला ।
महाराजका क्रोध सीमा पार कर गया । चिन्न जा उनका पहले से ही दुखा हुआ था । श्रापे से बाहर