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________________ ५४८ अनेकान्त [वर्ष ४ - इम प्रतिज्ञाका पालन करना मेग कर्तव्य है। सिर्फ 'परन्तु महागज !..' एक दिनकी ही तो बात है । न, मही एक दिन। 'हा, क्या कहना शेष है ?' और भी तो ढेगें दिन बाकी बचते हैं, वे क्या पेशेका राज्यका उत्तगधिकारी जब फांसी पर झलंगा, बरकरार-कायम रग्बनेके लिए काफी नहीं ?''ऊँह ! तब कौन-सी निष्ठुर-आँखें खुली रह सकेंगीव्यर्थका ऊहापोह !' जहाँपनाह ! ____ 'सचिव ! मुझे अनीनिक पथपर न ले जाया । इमस तुम्हाग दायित्व नष्ट होता है । तुम स्वयं जानते कुछ दिन बाद ! हा-दण्ड अपराधका देखता है, अपराधीकी विश'अगर मैं ऐमा नहीं करता, तो शासकके उच्च- पताका नहीं। मैं 'अन्याया' बनकर पिना' कहलाना तम पदस गिरता हूँ। अपराधीको मजा न देना, पसन्द नहीं करना । मंग आखिरी हुक्म है-अपइन्माफकी हत्या करना है, न्यायका गला घाटना है।' राधीका प्राण-दण्ड दिया जाय !' -सम्राटनं गम्भीरतापूर्वक व्यक्त किया। और ममा बर्खास्त हुई। ___ 'सही है-महागज ! न्याय करना ही कर्तव्य क्या इसी हिन्दुस्थानमें ऐसे न्याया-शामक और गुण होता है । लेकिन पिताकं हृदयसे यह शामन कर गए हैं, जो न्यायकी वदीपर अपन हृदयक सोचना भी आपका फर्ज है, कि अपराधी साधारण टुकड़े-बेटे की आहुति दे सकते थे ?.... नागरिक नहीं, आपका पुत्र है ! पुत्रके लिए, पिनाके कही-हां।' हृदयमें कुछ ममता होती है, इसलिए कि उसे हाना ही चाहिए।'-सचिवने अपराधी राज-पुत्रकी और दृष्टिपात करते हुए कहा। चतुर्दशी, प्रतिज्ञाका दिन'हाँ! यह मैं मानता हूँ । इममें इनकार नहीं, कि वह बैठा था, झोंपड़ीक बाहर चबूतरेपर ! कि पिता-पुत्रका सम्बन्ध हार्दिक होता है । लेकिन- उसने देखा--गज-कर्मचारियोंके बन्धनम एक सुन्ददिक्कत है कि कानून पिता-पुत्रके नाते-रिश्तेसे दूर है। गकार अपराधी चला आरहा है ।. वह उन्हें छना तक नहीं! मैं इस समय न्यायकं 'अरे, आज तो उसकी प्रतिज्ञाका दिन है न ? सिहासनपर बैठा हूँ-न्याय न करना मंग पतन है, यह कैमी बला आई ? अब क्या करना चाहियेपक्षपात है, सिंहासनके माथ दुश्मनी है और है उस ?' शासकके पदका अपमान ! मैं जब तक यहाँ हूँ- वह चकगया ! पहिले शासक हूँ, पीछे और कुछ ! अपराधके मुता- क्षण-भर रुका । वित प्राण-दण्ड देना यहां मेरा फर्ज है। और अन्तः- फिर उठा! आवश्यकता ही तो आविष्कार की पुरमें पुत्र-शोकमें, रोना-विलाप करना, मेरा कर्तव्य !' जननी है न ? उसे भी युक्ति सूझ चुकी थी । घरक सम्राटने ममता-हीन स्वरमें उत्तर दिया। भीतर पहुँच, सीसे बोला-'सुन, आज मैं बधक
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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