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अनेकान्त
[वर्ष ४
भाषण करते थे, इतना ही नहीं बल्कि, प्रमत्तयोगस पकरण (पीथी) और ज्ञानोपकरण (पुस्तप्रेरित होकर कभी दृमगेका पीड़ा पहुँचानवाला कादिक ) के रूपमें जो कुछ थाडीसी उपधि सावध वचन भी मॅहमे नहीं निकालने थे; और थी उससे भी आपका ममत्व नहीं था-भले ही उसे कितनी ही बार मौन धारण करना भी श्रेष्ठ ममझते काई उठा ले जाय, आपको इसकी ज़रा भी चिन्ता थे। स्त्रियों के प्रति आपका अनादग्भाव न होते हुए नहीं थी। आप सदा भूमिपर शयन करते थे और भी आप कभी उन्हें गगभावसे नहीं देखते थे; बल्कि अपने शरीरको कभी संस्कारित अथवा मंडित नहीं माना. बहिन और सुनाकी नग्हमें ही पहिचानन थे; करत थे; यदि पसीना आकर उसपर मैल जम माथ ही, मैथुनकर्मम, घृणात्मक + दृष्टिक माथ, जाता था तो उसे स्वयं अपने हाथ धोकर दूसरोंका
आपकी पूर्ण विरक्ति रहती थी, और आप उममें अपना उजलारूप दिखानकी भी कभी कोई चेष्टा द्रव्य नथा भाव दानों प्रकारकी हिमाका मद्भाव नहीं करते थे; बल्कि उस मलजनित परीपहका मानते थे । इसके मिवाय, प्राणियोंकी अहिंमा साम्यभाव जीतकर कर्ममलको धानेका यत्न करत को श्राप 'परमब्रह्म' ममझते थे * और थे, और इसी प्रकार नग्न रहते तथा दूसरी सरदी जिम आश्रगविधिम अरणमात्र भी प्रारंभ न होता गग्मी आदिकी परीपहोंको भी खुशीखुशीसे महन हो उमीके द्वारा उम अहिमाकी पूर्णमिद्धि मानते थे। करते थे। इसीसं आपने अपने एक परिचय + म. उमी पूर्ण अहिमा और रमी परमब्रह्मकी मिद्धिक गौरवके साथ अपने आपको 'नग्नाटक' और 'मललिए आपने अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके मलिनतनु' भी प्रकट किया है। परिग्रहोंका त्याग किया था और नेग्रंथ्य-श्राश्रममें ममंनभद्र दिनमे सिर्फ एक बार भोजन करते थे. प्रविष्ट होकर अपना प्राकृतिक दिगम्बर वेष गत्रिको कभी भोजन नहीं करते थे, और भोजन भी धारण किया था । इमीलिये आप अपन पाम कोई आगमोदित विधिक अनुमार शुद्ध, प्रासुक तथा कौडी पैमा नहीं रखते थे, बल्कि कौड़ी पैममें निर्दोप ही लेने थे। वे अपने उम भाजनके लिय मम्बंध रग्बना भी अपने मुनिपदके विरुद्ध ममझत किमीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे, किसीका थे। आपके पास शौचोपकरण (कमंडल), संयमो- किमी रूपमें भी अपना भोजन कग्न कगर्नकं लिय
र प्रेरित नहीं करते थे, और यदि उन्हें यह मालूम हो ___ आपकी इस घृणात्मक दृष्टिका भाव 'ब्रह्मचारी' । के निम्न लक्षणमं भी पाया जाता है, जिसे आपने जाता था कि किसीन उनके उद्देश्यस काई भोजन रत्नकरंडक' में दिया है
तय्यार किया है अथवा किमी दूसरे अतिथि (मेहमलवीजं मलयानि गलन्मलं पूनिर्गधि बीभत्म। मान) के लिये तय्यार किया हश्रा भोजन नन्हें दिया पश्यन्नंगमनंगाद्विग्मति यां ब्रह्मचारी मः ॥१४३।। जाता है तो वे उम भोजनको नहीं लेते थे। उन्हें * अहिंमा भूनानां जगनि विदितं ब्रह्म परमं, उसके लेने में सावद्यकर्मके भागी होने का दोष मालूम न मा तत्रारंभोस्त्यगुरपि च यत्राश्रमविधौ।।
__पड़ता था और मावद्यकर्म से वे सदा अपने आपको भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥११६ ॥ मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदनद्वाग दृर
-स्वयंभूम्तोत्र । + 'कांच्यां नग्नाटकाहं मलमलिनतनुः' इत्यादि पद्यम।
में परमकरुणा ग्रंथमुभयं,